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________________ (स) धर्मोपकरण दान—छः काया के आरंभ से निवृत्त पंचमहाव्रतधारी साधु को आहार, पानी वस्त्र, पात्र आदि धर्म सहायक उपकरण देना धर्मोपकरण दान है। (द) अनुकम्पादान-अनुकम्पा के पात्र दीन, अनाथ रोगी, संकटग्रस्त को अनुकम्पा भाव से दान देना अनुकम्पा दान है। वस्तुतः बदला पाने की आशा के बिना निःस्वार्थ बुद्धि एवं करुणा भावना से जो दान दिया जाता है, वही सच्चा दान होता है। ऐसे दाता भी दुर्लभ होते हैं तो निःस्पृहभाव से शुद्ध भिक्षा द्वारा जीवन यापन करने वाले भी विरले ही होते हैं। निःस्वार्थ भाव से दान देने वाले और निःस्पृह भाव से दान लेने वाले दोनों ही दान-गुण के श्रेष्ठ प्रतीक माने गये हैं। (२) शील (ब्रह्मचर्य)—मैथुन का त्याग करना शील है। शील का पालन करना शील धर्म है। शील सर्व विरति एवं देश विरति रूप दो प्रकार का होता है। देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी मैथुन का सर्वथा तीन करण तीन योग से त्याग करना सर्व विरति शील है। स्वदार सन्तोष और परस्त्री विवर्जन रूप ब्रह्मचर्य एकदेश शील है। मन वचन और काया को सांसारिक वासनाओं से हटाकर आत्म चिन्तन में लगाना ब्रह्मचर्य है। इसके अट्ठारह भेद हैं—देव सम्बन्धी भोगों का मन, वचन और काया से स्वयं सेवन न करना, दूसरों से न कराना तथा उसका अनुमोदन नहीं करनाइस प्रकार नौ भेद तथा इसी प्रकार मनुष्य, तिर्यंच सम्बन्धी भोगों के भी नौ भेद सो कुल अट्ठारह हुए। इन भोगों का सेवन करना अट्टारह प्रकार का अब्रह्मचर्य हो गया। कहा गया है कि ब्रह्मचर्य व्रत की आराधना करने से सभी व्रतों की आराधना सहज हो जाती है। शील, तप, विनय, संयम, क्षमा, निर्लोभता और गुप्ति- ये सभी ब्रह्मचर्य की आराधना से आराधित होते हैं। ब्रह्मचारी इस लोक और परलोक में यश, कीर्ति और लोक विश्वास प्राप्त करता है। ब्रह्मचारी को स्त्रियों को न रागपूर्वक देखना चाहिये न उनकी अभिलाषा करनी चाहिये। स्त्रियों का चिन्तन एवं कीर्तन भी उन्हें नहीं करना चाहिये। सदा ब्रह्मचर्य व्रत में रमण करने वालों के लिये यह नियम उत्तम ध्यान प्राप्त करने में सहायक है एवं उनके लिये अत्यन्त हितकर है। (३) तप -जो आठ प्रकार के कर्मों एवं शरीर की सात धातुओं को जलाता है, वह तप है। तप बाह्य एवं आभ्यन्तर रूप से दो प्रकार का है। बाह्य के छ: और आभ्यन्तर के छः इस प्रकार तप के बारह भेद होते हैं। तप का अर्थ है इच्छाओं को रोकना तथा कष्टों को सहन करना। जिस पानी आना बन्द है, उसका पानी बाहर निकालने से तथा धूप से जैसे धीरे-धीरे सूख जाता है, उसी प्रकार नवीन पाप कर्म रोक देने पर संयमी साधुओं के भव-भवान्तरों के संचित कर्म तपश्चरण के प्रभाव से नष्ट हो जाते हैं। पराक्रम रूपी धनुष में तप रूपी बाण चढ़ाकर मुनि कर्म रूपी कवच का भेदन कर देता है और संग्राम से निवृत्त होकर इस संसार से मुक्त हो जाता है। तप ऐसा करना चाहिये कि विचारों की पवित्रता बनी रहे, इन्द्रियों की शक्ति हीन न हो और साधु के दैनिक कर्तव्यों में शिथिलता न आने पावे । जो तपस्वी है, दुबला पतला है, इन्द्रियों का निग्रह करने वाला है, शरीर का रक्त और मांस जिसने सुखा दिया है, जो शुद्ध व्रत वाला है तथा जिसने कषाय को शान्त कर आत्मशान्ति प्राप्त की है वही सिद्ध पद का अधिकारी है। तपश्चरण भीतर बाहर के सारे विकार को जला देता है। वह काया को ही कृश नहीं करता बल्कि माया को भी मार देता है। मन का मूर्णा भाव मिटे -यह तप का प्रधान उद्देश्य माना गया है अतः तपस्या का आचरण आन्तरिक विवेक के साथ होना चाहिये। जो आत्मशक्ति को तप में लगाता है, उसकी शक्ति पूर्णतः सार्थक बनती है। तप के माध्यम से ही उस शक्ति की स्पष्ट अभिव्यक्ति होती है। यदि तपश्चरण २६७
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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