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________________ (५) आपत्प्रतिसेवना—किसी आपत्ति के आने पर संयम की विराधना करना। आपत्ति चार प्रकार की होती है—(अ) द्रव्यापत्-प्रासुक आदि निर्दोष आहार वगैरा न मिलना, (ब) क्षेत्रापत्अटवी आदि भयानक जंगल में रहना पड़े, (स) कालापत्-दुर्भिक्ष आदि पड़ जाय और (द) भावापत्—बीमारी आदि से शरीर का अस्वस्थ हो जाना। (६) संकीर्ण प्रतिसेवना—स्वपक्ष और परपक्ष से होने वाली जगह की तंगी के कारण संयम का उल्लंघन करना अथवा ग्रहण योग्य आहार में किसी दोष की शंका हो जाने पर भी उसे ले लेना। (७) सहसाकार प्रतिसेवना-अकस्मात् अर्थात् बिना पहले समझे-बूझे और प्रतिलेखना किये किसी काम को करना। (८) भय प्रति सेवना—किसी भी प्रकार के भय से ग्रस्त होकर संयम की विराधना करना। (E) प्रद्वेष प्रतिसेवना—किसी के ऊपर द्वेष या ईर्ष्या से संयम की विराधना करना। यहाँ प्रद्वेष शब्द में चारों कषाय सम्मिलित है। (१०) विमर्श प्रतिसेवना-शिष्य की परीक्षा आदि के लिये की गई संयम की विराधना । संयम के साधक को सदैव इस रूप से जागृत रहना चाहिए कि विराधना या प्रतिसेवना का अवसर नहीं आवे। मेरी इस मान्यता में अटल आस्था है कि अहिंसामय आचरण से पृष्ट बनी संयम साधना के द्वारा कर्म बंध के कारणों को मन्दतम बनाया जा सकता है। कर्मों का इससे आगमन जाता है। वैसी अवस्था में बद्ध कर्मों के क्षय की ही समस्या सामने रह जाती है, जिसका सफल उपाय है –तप। तपश्चरण से कर्मों की निर्जरा होती है और तप महान् पुरुषार्थ और पराक्रम कहा गया है। अहिंसा, संयम और तप के तीन सोपानों को सफलतापूर्वक लांघ लेने के बाद आत्मा की विभाव मुक्ति या स्वभाव प्राप्ति अथवा धर्म प्राप्ति हो जाती है (तप के स्वरूप और भेदों का विस्तृत वर्णन आगामी अध्याय में उपलब्ध है)। यह त्रिविध धर्माराधना साध्य तक पहुँचाने वाली होती है। स्वाभाविक गुणों का विकास सफल धर्म नीति वही कही जायगी, जिस का अनुसरण करते हुए आत्मा के स्वाभाविक गुणों का विकास हो। इन स्वाभाविक गुणों में उन सभी मानवीय गुणों का समावेश हो जाता है जो एक मानव में मानवता के स्वरूप को दर्शाने वाले होते हैं। स्वाभाविक गुणों को प्रोत्साहित करने वाली धर्माराधना को निश्रेयस-कल्याण प्राप्ति की साधिका कहा गया है जो दो प्रकार से आराधी जाती है - (१) श्रुत धर्म-अंग और उपांग रूप शास्त्रीय वाणी को श्रुत कहते हैं। श्रुत में ही वाचना, प्रच्छना आदि स्वाध्याय के प्रकार भी समाहित माने गये हैं। श्रुत के भी दो भेद हैं—(अ) सूत्र श्रुत-अंग और उपांग रूप शास्त्रों के शब्द रूप मूल पाठ को सूत्र श्रुत कहते हैं, व (ब) अर्थ श्रुत-शास्त्र-पाठों के अर्थ को अर्थ श्रुत कहते हैं। २६५
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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