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________________ विचार विभिन्नता लिये हुए रहते हैं और एक बिन्दु तक पहुंच जाने पर नई पद्धति का विकास करते हैं। अतः मूल प्रश्न निष्ठा का है। निष्ठा सही लक्ष्य की तरफ है तो विचार भेद भी विकास का श्रेष्ठ फल देते हैं। और यदि निष्ठा दूषित रही तो वह उस विचार भेद को मन भेद तक ले जाकर अच्छे विचार को भी विवाद का विषय बना देती है। अतः अच्छे व्यक्तियों की प्रभाव-वृद्धि सामाजिक स्वास्थ्य के लिये सदैव लाभप्रद होती है। मेरी मान्यता है कि अच्छे व्यक्तियों का निर्माण मुख्यतः श्रेष्ठ धर्मनीति के माध्यम से ही किया जा सकेगा क्योंकि धर्म नीति सबसे पहले व्यक्ति के सदज्ञान एवं सदाचरण पर ही बल देती है। व्यक्ति को सुधारने के लिये चाहे व्यक्तिगत प्रयोग किये जांय अथवा सामाजिक प्रयोगसर्वप्रथम उसकी स्वयं की जागरूकता आवश्यक होती है और पहले बिंदु पर उसकी जागरूकता उभारने के लिये उसके निजी विचार एवं आचार पर ही ध्यान देना पड़ेगा और यह कार्य पारिवारिक संस्कारिता के साथ धर्मनीति ही सफलतापूर्वक सम्पन्न कर सकती है। मानव निर्माण की भूमिका व्यक्ति चूंकि एकाकीवास नहीं करता, वह अपने साथियों के समूह के बीच में रहता है या यों कहें कि समाज में रहता है अतः वह सामाजिक शक्तियों से भी पूर्णतः प्रभावित होता है। और आज तो विविध वैज्ञानिक आविष्कारों एवं अनुसंधानों ने सामाजिकता का दायरा अत्यधिक विस्तृत बना दिया है। जहाँ पहले व्यक्ति का एक छोटे से निकटस्थ समूह से ही विशेष सम्पर्क रहता था, वहां आज वह करीब-करीब परोक्ष रूप से सारे ज्ञात संसार से सम्पर्करत होता है। वास्तव में उसकी जानकारी का दायरा इतना ही फैल गया है और जब विस्तृत सम्पर्क का क्षेत्र है तो यों मानिये कि उस पर उतनी ही विस्तृत सामाजिकता का भी असर पड़ता है। एक दूसरे समूह की सभ्यता और संस्कृति समूचे वातावरण पर भी अपना प्रभाव छोड़ती है। इस दृष्टि से आज मानव में मानवता का विकास एक रूप में जटिल बना है तो दूसरे रूप में सरल भी हुआ है। जटिल इस रूप में कि विविधताओं का क्षेत्र इतना विस्तृत हो गया है जिसमें विचार सामंजस्य स्थापित कर एकरूप मानवता का विकास दुरूह बन गया है। और सरल इस रूप में कि अब व्यक्तिगत प्रयासों के साथ सामाजिक प्रयास इतने सशक्त बन गये हैं जिनका प्रभावशाली प्रयोग किया जाय तो उद्देश्य प्राप्ति अधिक समीप आ सकती है। मानव में मानवता का निर्माण सभी को अभीष्ट है—धर्मोपदेशक भी यही कहता है तथा राजनेता अर्थवेता अथवा समाज सुधारक भी। निजी स्वार्थों में पड़ जाने से कथनी करनी का भेद अवश्य पैदा हो जाता है लेकिन उद्देश्य के प्रति एकरूपता है। मनुष्य जगेगा—मनुष्यता अपनायगा तभी उसका विकास संभव है और साथ-साथ में समाज एवं समाज के विभिन्न संस्थानों का विकास भी संभव होता है। इस कथन में आपेक्षिक अनुसंधान आवश्यक है कि पहले व्यक्ति का विकास होगा, तभी समाज का विकास हो सकेगा, क्योंकि व्यक्ति और व्यक्ति से ही तो समाज की रचना होती है। किन्तु एक दृष्टि यह है कि व्यक्ति की अपनी शक्ति के अलावा भी सुव्यवस्था की दृष्टि से व्यक्ति द्वारा ही प्रदत्त शक्ति से एक सामाजिक शक्ति का अलग से विकास होता है और कई अर्थों में यह सामाजिक शक्ति भी व्यक्तिगत जीवन पर नियंत्रण करती है। पारिवारिक शक्ति इसी सामाजिक शक्ति का प्रारंभिक रूप होता है जो मोहल्ला, ग्राम, नगर, राष्ट्र आदि के स्तरों पर विकसित होती हुई एक अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति का रूप ले लेती है। २८३
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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