SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होनी चाहिये। इसी विशिष्टता को आधार बना कर आत्मा सुदेव, सुगुरु तथा सुधर्मनीति का चयन कर सकती है। प्रधानतः धर्म रूप साध्य अपनी दृष्टि में स्पष्ट हो तो तदनुकूल साधनों का याने कि नीतियों का चयन अधिक कठिन नहीं रहता है। कई प्रकार की नीतियों में धर्म नीति भी एक प्रकार होती है। किन्तु वह विशिष्ट प्रकार रूप होती है। अन्य नीतियों की बात बाद में करें, पहले धर्मनीतियों के झंडों के नीचे पलने वाले मत-मतान्तरों की थोड़ी-सी चर्चा करलें । मैं यह मानकर ही चलता हूं कि प्रत्येक विवेकपूर्ण विचार में कुछ न कुछ सत्यांश होता है। और इस दृष्टि से प्रत्येक मत में कहीं न कहीं कुछ न कुछ सत्यांश होने की कल्पना करता हूं, अतः ऐसे प्रत्येक विचार का समादर करता हूं, और उसमें यदि कोई सत्यांश है तो उसे खोजने की चेष्टा करता हूं । किन्तु यह भी हो सकता है कि कई मत मात्र हठ, दुराग्रह या अपने मत को थोपने की कुचेष्टा से भी प्रचलित किये जाते हैं, ताकि ऐसे मत को थोपने वाले का सच्चा झूठा वर्चस्व बना रहे। ऐसे मतों की हठवादिता से ही पारस्परिक विवाद बढ़ते हैं। कई बार प्रारंभ में कोई विचार सदाशयी होता है किन्तु उसकी पकड़ बाद में अंधेपन से करादी जाती है जिससे कलहपूर्ण विवाद बढ़ते है । विशेष रूप से मत मतान्तर एकान्तवादिता के दुराग्रह के कारण भी पनपते है जो किसी दूसरे विचार को सहन करना ही नहीं चाहते, जिससे विद्वेष के आधार पर ही उनका पोषण होता है। इन सभी मतमतान्तरों के प्रति मेरा विचार है कि अनेकान्तवादी दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिये ताकि विचार सामंजस्य का वातावरण बन सके और विचार-मंथन से विचार-सार प्राप्त किया जा सके। विचार सामंजस्य का जहां तक प्रश्न है, मेरा मानना है कि विभिन्न प्रकार की तथाकथित धर्म-नीतियों में भी अनेकान्तवादी दृष्टिकोण का प्रयोग आवश्यक है। जब आत्मा का साध्य स्पष्ट न हो तो साधनों में विभिन्नता भी दोषपूर्ण ही कही जायगा । साध्य का एक ही सशक्त साधन होना चाहिए। नाम भेद भी वहां पर अनुपयुक्त होता है। सद्गुणों अथवा सत्सिद्धान्तों के स्वरूप में सामान्यतः कोई अन्तर नहीं होता है, जो अन्तर होता है वह आराधना या उपासना की पद्धतियों में होता है। इस विभिन्नता में भी सद्विचार की सहायता से सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है। और यही विचार सामंजस्य धर्मनीतियों के अलावा अन्य प्रकार की सामाजिक नीतियों में स्थापित किया जा सकता है। सामाजिक नीतियों में राजनीति, अर्थनीति या ऐसी ही सामूहिक प्रभाव वाली नीतियों की गणना की जा सकती है। वस्तुतः इन नीतियों का उद्देश्य भी सामाजिकता को श्रेष्ठ बना कर प्रत्येक मनुष्य के भौतिक एवं तदनुरूप आध्यात्मिक विकास का मार्ग खोजना ही होता है। इस क्षेत्र में भी व्यक्ति ( शासनस्थ या अन्य प्रकार से वर्चस्व रखने वाला) की हठवादिता, स्वार्थपरता अथवा दुराग्रह की ही बाधाएं आती हैं जिन्हें विचार सामंजस्य के प्रयोग से दूर करने की अपेक्षा रहती है । राजनीति में भी शासन की कई पद्धतियाँ प्रचलित है और इसी प्रकार अर्थनीति में भी विभिन्न पद्धतियाँ हैं जो मनुष्य को स्वशासित बनाने का दावा करती हैं। इनमें सर्वाधिक विकसित लोकतंत्रीय पद्धति है जो राजनीति और अर्थनीति को समानता के सिद्धान्त पर चलाना चाहती है। प्रत्येक नागरिक को अपना शासन चलाने और अर्थनीति को समाजवादी ढंग से ढालने में यह लोकतंत्रीय पद्धति विश्वास रखती है। कई बार व्यक्ति अपनी विकास की प्रक्रिया में वस्तु २८२
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy