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________________ लगा हुआ है कि वह अपने ही लिये लूट मचा कर कितनी सत्ता और सम्पत्ति हस्तगत कर सकता है संचित कर सकता है? सोचिये कि ऐसी मदमाती सम्पन्नता और तरसती अभावग्रस्तता की परिस्थितियों में व्यक्ति के सामान्य रूप से योग व्यापार की क्या अवस्था हो सकती है? जैसा बाहर दिखाई देगा, सुनाई देगा और महसूस किया जायगा, मन वैसा ही विचार करेगा—वैसी ही प्राप्तियों की कामना करेगा और वैसे ही उपायों से उनके लिये चेष्टारत बनेगा। जैसा मन का योग होगा, उसी रूप में वचन का और काया का योग ढलेगा। तब समग्र रूप में जीवन का उसी प्रकार का आचरण सामने आयगा। वहीं आचरण प्रतिबिम्ब होता है पूरे सामाजिक वातावरण का। मैं मानता हूं कि मानवीय मूल्य शाश्वत होते हैं। उनके व्यवहार की विधि परिवर्तित हो सकती है किन्तु उनका मूल स्वरूप एक-सा रहता है। सामाजिक वातावरण ही मानवीय मूल्यों के परख की कसौटी होता है क्योंकि सामाजिक वातावरण व्यक्ति-व्यक्ति के ही सामूहिक व्यवहार का प्रतिरूप होता है। उसी कसौटी पर आज जब मानव मूल्यों को चढ़ाते हैं तो उनके ह्रास के घनत्त्व का अनुमान लगता है। धन, सत्ता और विलास की उद्दाम लालसाओं ने मानवीय मूल्यों की धज्जियाँ उड़ा दी हैं क्योंकि इन लालसाओं में व्यामोहित होकर मनुष्य कई बार पशुता एवं राक्षसी रूपों के इर्दगिर्द ही चक्कर काटने लगता है। इस प्रकार मनुष्य अपने मनुष्य-तन में तो रहता है लेकिन मनुष्यता से हीन बन जाता है। उसका कारण है—वह धन, सत्ता और विलास चाहता है अपने ऐन्द्रिक सुखों के लिये जबकि धन और सत्ता का उपयोग होना चाहिये सामाजिक समानता एवं सुव्यवस्था को बनाये रखने के लिये। वह सामाजिक न्यास के रूप में प्राप्त धन और सत्ता को झौंक देता है अपने विलास और भोग में। भोगों की मोहग्रस्तता से काषायिक वृत्तियाँ भड़कती हैं और उनसे समूचा योग व्यापार विकृत बन जाता है याने कि समूचा जीवन मलिन हो जाता है। एक मलिन जीवन सारे समाज में अपनी मलिनता फैलाते हुए विद्रूप गति की रचना करता है। इसी विकारपूर्ण पृष्ठ भूमि में सामान्य रूप से व्यक्तियों के मन मानवता हीन बनते जाते हैं। मन में मानवता नहीं तो मानवीय चिन्तन कहां से उभरेगा? मानवीय चिन्तन नहीं तो मानवीय मूल्यों की ओर रूझान ही कैसे बनेगा? मन में मानवता नहीं तो वाणी असत्य और अप्रिय बने—इसमें आश्चर्य की बात नहीं होगी। मानवताहीन मन से सत्य फूट ही नहीं सकता क्योंकि वह क्रूर होता है और उस कारण वचन प्रियकारी भी नहीं हो सकता। उलझे या विकारों में फंसे मन और वचन वाला मनुष्य अकृत्य नहीं करेगा तो क्या करेगा? उसके काम कपटपूर्ण भी होंगे तो अधर्ममय भी। उसकी कथनी और करनी का भेद सामने रहेगा। यह दशा ही मानवीय मूल्यों के ह्रास की दशा है। मैं सोचता हूं कि यदि मानवीय मूल्यों की दृष्टि से अधःपतन की इस दशा में सुधार लाना है तो व्यक्ति और समाज के दोनों किनारों से शुभ परिवर्तन के प्रयास प्रारंभ करने होंगे। व्यक्ति अपने नियमित विचार और आचार में सुधार लावे—यह भी जरूरी है तो सामूहिक प्रयास के बल पर समूचे सामाजिक वातावरण में भी आवश्यक सुधार लाये जाय -यह भी उतना ही जरूरी है। मेरा विचार है कि सामूहिक प्रयास व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह की उद्दाम लालसाओं पर शक्ति से रोक लगाने के उद्देश्य से किये जाय । सामाजिक व्यवस्था में कुछ ऐसा परिवर्तन किया जाय कि स्वार्थपूर्ति के मामले में चाहकर भी एक व्यक्कि राक्षसी रूप धारण न कर सके। ऐसा प्रतिबंध राजनीतिक, आर्थिक अथवा अन्य प्रकार का हो सकता है। धन और सत्ता पाने की अंधी दौड़ में २४५
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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