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________________ दूसरे मैं देखता हूं कि व्यक्ति समूह बना कर परिवार गांव या समाज रूप में रहते हैं तो उनके पारस्परिक सम्बन्धों के आधारभूत कारणों का भी मनुष्य के समग्र जीवन पर भारी असर पड़ता है। उनका पारस्परिक व्यवहार परम्परागत भी होता है तो स्थापित परम्पराओं में नई-नई परिस्थितियों के कारण परिवर्तन भी होते रहते हैं। इस दृष्टि से मैं हमारे अपने चारों ओर रहे हुए समाज की ही समीक्षा करूं तो आज से पचास वर्ष पहले के तथा आज के सामाजिक वातावरण में भारी अन्तर दिखाई देगा। इसी अन्तर में ही हम व्यक्ति के जीवन पर पड़ने वाले परिवर्तित प्रभावों की मीमांसा करते हुए उन परिस्थितियों की जानकारी ले सकते हैं जिन्होंने ऐसा अन्तर पैदा किया और उसी के दर्पण में हम बदलते रहने वाले योग व्यापार की दिशाओं का भी ज्ञान कर सकते हैं। आज से पचास वर्ष पहले का समय हमसे कोई बहुत दूर नहीं रहा है लेकिन दोनों किनारों के सामाजिक वातावरण की तुलना करें तो बहुत दूरी दिखाई देती है। इस दूरी का कारण मुख्य रूप से भौतिक विज्ञान का विकास है जिसने अपने नये नये आविष्कारों से नई नई सुख सुविधाओं की रचना की है। आंखों के सामने सीधा सादा दृश्य हो तो दृष्टि की गति भी सीधी सादी ही रहेगी किन्तु सामने लुभावना रूप आ जाय तो दृष्टि की लोलुपता बढ़ जायगी और यदि सामने अति आकर्षक नाटकीय दृश्य उपस्थित हो जाय तो दृष्टि सब को भूलकर अपने ही सुख के लिये अधीर बन जायगी। वैज्ञानिक विकास ने विचारने और करने की दृष्टि में इसी रूप से परिवर्तन किया है। पहले समाज में जो एक खुला जीवन था कि व्यक्ति अपने पड़ोसी, अपने सम्बन्धी अथवा अपने समाज के हालचाल से वाकिफ रहता था—उनके दुःख सुख में बराबर शरीक होता था, वह खुला जीवन भौतिक सुख-सुविधाओं को प्राप्त करने हेतु धन कमाने की अंधी दौड़ में धीरे-धीरे बंद होता गया है। आध्यात्मिक शब्दों में यों कहें कि पहले लोगों के मन, वचन, काम का योग व्यापार जो सामान्यतया अपने साथ सारे समाज के सहयोग रूप में पारस्परिक प्रेम एवं सहानुभूति को आधार बना कर मृदुता, सौजन्यता एवं सौहार्द्रता के साथ चला करता था, वही योग व्यापार आज अपने ही स्वार्थ के घेरों में बन्द होकर अत्यन्त कुटिलता, मलिनता और आक्रामकता के साथ चलता है। हृदय की उदारता के संकुचितता में बदल जाने के कुफल स्वरूप योग व्यापार में सामान्य रूप से ऐसा घृणित परिवर्तन आया है। . यही मानवीय मूल्यों में हास का सबसे बड़ा कारण है। सामाजिक वातावरण में जितना खुलापन होता है, पारस्परिक सम्बन्धों का दायरा भी उतना ही व्यापक होता है और तदनुसार हृदय की उदारता भी उतनी ही मानवता पूर्ण होती है। व्यक्ति जब समाज में रहे और मानवीय सद्गुणों को अपने जीवन में नहीं अपना सके तो सामाजिक व्यवहार की सुचारूता का निर्माण ही कैसे हो सकता है ? जब पारस्परिक सहयोग से हट कर व्यक्ति अपने ही स्वार्थों के संकुचित दायरे में बन्द हो जाता है तब सामाजिकता प्रभावहीन होने लगती है बल्कि दुष्प्रभावी हो जाती है क्यों कि संकुचितता से आर्थिक एवं अन्य प्रकार की विषमताएं बढ़ जाती हैं। किसी भी क्षेत्र में किसी भी रूप से समतामय वातावरण का घटना और विषमता का बढ़ना निश्चय रूप से मानवीय मूल्यों के ह्रास का ही संकेत होता है। __ आज मैं देख रहा हूं कि राष्ट्र में व्यक्तियों की स्वार्थ परता अधिक नजर आ रही है, समाज में कोई व्यवस्थित कार्य प्रणाली कम देखी जाती है। स्वच्छन्दता के साथ अपना जोर आजमाने में २४४
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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