SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काया की शुभाशुभता का परिचय इन भेदों से होता है। मनोयोग एक शक्ति है, उसका उपयोग सत्य के लिये हो सकता है, असत्य के लिये हो सकता है, सत्यासत्य (मिश्र) के लिये हो सकता है अथवा व्यावहारिक दृष्टि की सम्पूर्ति के लिये हो सकता है जो विभिन्न रूपिणी हो सकती है। इसी प्रकार वचन योग रूप शक्ति का भी और काम योग रूप शक्ति का भी उपयोग हो सकता है । मुझे अपने भीतर में चल रहे तथा तदनुसार बाहर भी प्रकट होने वाले योग व्यापार को देखना, परखना और वास्तु स्वरूप जानना चाहिये ताकि मैं उस त्रिविध योग व्यापार को अशुभता से शुभता की ओर, असत्य से सत्य की ओर तथा तुच्छता से उच्चता की ओर ले जा सकूं और शुभता, सत्य तथा उच्चता के क्षेत्र में भी उन्हें अधिक उत्कृष्टता प्रदान कर सकूं । योग व्यापार की परख - प्रक्रिया से ही मुझे ज्ञात हो सकेगा कि अंधकार (अज्ञान) की परतों में पड़ा हुआ मेरा मन कितना मानवताहीन (विषय कषायों के दुष्प्रभाव से), मेरा वचन कितना असत्य और अप्रिय तथा कर्म कितना द्विरूप (दोगला ) एवं अधर्ममय हो गया है ? मुझे तब यह भी अनुभव होगा कि मनोयोग, वचन योग तथा कामयोग के रूप में मिली शक्तियों का मैंने कितना घोर दुरुपयोग किया है ? जिस तकली से सूत कातकर रचनात्मक कार्य किया जाना चाहिये, उसकी नोक से मैंने आंखें फोड़ने का कुकृत्य किया है—यह हकीकत मुझे चौंकायगी और मुझे विवश करेगी कि अपने क्रियाकलापों पर अब तो कम से कम कड़ी नजर रखूं। मेरी विकृति की अनुभूति ही मुझे सत्कृति की ओर मोड़ेगी – यह मेरा विश्वास कहता है। इसी विश्वास के साथ मैं अपने समूचे योग-व्यापार को अधिकाधिक शुभता के क्षेत्र में ले जाने तथा वहीं बनाये रखने का अपना पुरुषार्थ गंभीर रूप से क्रियाशील बना दूंगा । यों योग के दो भेद भी किये गये हैं—भाव योग और द्रव्य योग । पुद्गल विपाकी शरीर और अंगोपांग नाम कर्म के उदय से मनोवर्गणा, भाषा वर्गणा और कायवर्गणा के अवलम्बन से कर्म - नोकर्म ग्रहण करने की जीव की शक्ति विशेष को भाव योग कहते हैं तथा इसी भाव योग के निमित्त से आत्म प्रदेशों के परिस्पन्दन (कंपन) को द्रव्य योग कहा गया है। यह योग व्यापार ही मानव के जीवनाचरण का मूल आधार है । जैसा आचरण चाहिये, उसी रूप में इस योग व्यापार को मोड़ देना होगा । मानवीय मूल्यों का ह्रास इस योग व्यापार के संदर्भ में मैं जब वर्तमान युग पर एक दृष्टि - निपात करता हूं तो अनुभव होता है कि आज यह योग – व्यापार सामान्यतया अत्यधिक मलिन एवं कलुषित होता जा रहा है। जब इसके कारण ढूंढता हूं तो एक बात समझ में आती है कि मूलतः मन का योग व्यापार बाह्य वातावरण को पृष्ठभूमि बनाकर ही अधिकांशतः चला करता है। इस बाह्य वातावरण में सामाजिक परिस्थितियों, विविध क्षेत्रों में भौतिक विकास, विभिन्न प्रकार की सुख सुविधाओं की उपलब्धि आदि सभी तथ्य सम्मिलित मानने चाहिये क्योंकि इन सभी का मनुष्य के मन-मष्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ता है। मनुष्य भी जब तक अन्तर्मुखी नहीं हो पाता है, तब तक मुख्य रूप से बहिर्मुखी वृत्ति वाला ही होता है । अतः बाह्य संसर्ग से उसके विचार उपजें, प्रकट होवें और अमल में आवें —यह स्वाभाविक है। विशेष रूप से आध्यात्मिक चिन्तन के अभाव में तो मनुष्य बाहरी जीवन ही प्रधान रूप से जीता है। २४३
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy