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________________ ध्यान को ध्याता है। प्रशान्त चित्ती व आत्म शोधक बनता है, पांच समिति व तीन गुप्ति का आराधक होता है, अल्परागी अथवा वीतरागी, सौम्य, जितेन्द्रिय तथा उत्तम भावों से युक्त होता है। इन छः लेश्याओं को समझने के लिए दो दृष्टान्तों का भी उल्लेख किया गया है। पहला दृष्टान्त है। छः पुरुषों ने एक जामुन का पेड़ देखा। पेड़ पके हुए फलों से लदा था। डालियाँ भार से नीचे की ओर झुकी हुई थीं। यह देखकर सबको फल खाने की इच्छा हो गई। सोचने लगे-फल किस प्रकार खाये जायं? एक ने कहा—पेड़ पर चढ़ने से गिरने का खतरा है इस लिए इसे जड़ से काटकर गिरादें और सुखपूर्वक बैठकर फल खावें। दूसरा बोला—पेड़ को जड़ से काटकर गिराने से क्या लाभ ? केवल बड़ी-बड़ी डालियां ही क्यों न काटी जाय? तीसरे ने सुझाव दिया —बड़ी-बड़ी डालियाँ न काटकर सिर्फ छोटी छोटी डालियाँ ही काटें। फल तो छोटी डालियों पर ही लगे हुए हैं। चौथे ने कहा- हमें तो फलों से प्रयोजन है, डालियाँ क्यों काटें? केवल फलों के गुच्छे ही तोड़ लें। पांचवा बोला –गुच्छे भी तोड़ने की क्या जरूरत है ? केवल पके हुए फल ही नीचे गिरादें। छठा बोला—जमीन पर ही इतने फल गिरे हुए हैं जो हमारे सबके लिये पर्याप्त हैं। इन्हें ही खालें। दूसरा दृष्टान्त इस प्रकार है। छः डाकू किसी गाँव में डाका डालने के लिए रवाना हुए। रास्ते में वे विचार करने लगे। पहला बोला–जितने भी मनुष्य और पशु हमको दिखाई दें, उन सबको हम मार डालें। दूसरे ने कहा- पशुओं ने हमारा कछ नहीं बिगाड़ा है। हमारा तो मनष्यों के साथ विरोध है इसलिये उन्हीं का वध करना चाहिये। तीसरे ने राय दी—स्त्री हत्या महापाप है, इस कारण क्रूर परिणाम वाले पुरुषों को ही मारना चाहिये। इस पर चौथे ने सुझाया –यह भी ठीक नहीं, शस्त्र रहित पुरुषों पर वार करना व्यर्थ है अतः हम सिर्फ सशक्त पुरुषों को ही मारेंगे। पांचवां कहने लगा- सशस्त्र पुरुष भी अगर डर के मारे भाग रहे हों तो उन्हें नहीं मारना चाहिये। जो शस्त्र लेकर हमसे लड़ने आवें, उन्हें ही मारा जाय । अन्त में छठे ने कहा हम लोग डाकू हैं। हमें तो धन लूटना है इसलिये जैसे धन मिले वैसे ही उपाय करने चाहिये। एक तो हम लोगों का धन लूटें और दूसरे उन्हें मारें भी—यह उचित नहीं है। यों ही चोरी पाप और उस पर हत्या का महापाप क्यों करें? दोनों दृष्टातों के पुरुषों में पहले से दूसरे, दूसरे से तीसरे और इस प्रकार आगे से आगे पुरुषों के परिणाम क्रमशः अधिकाधिक शुभ हैं। इन परिणामों में उत्तरोत्तर संक्लेश की कमी एवं मृदुता की अधिकता है। छहों में इसी प्रकार लेश्याओं में भी क्रमशः परिणामों की विशुद्धता अधिकाधिक रूप से समझना चाहिये। छहों लेश्याओं में पहली तीन अधर्म लेश्या हैं तथा अन्तिम तीन धर्म लेश्या हैं। अधर्म लेश्या से जीव दुर्गति में तथा धर्म लेश्या से सुगति में जाता है। जिस लेश्या को लिये हुए जीव की मृत्यु होती है, तदनुसार ही उसे आगामी जन्म मिलता है। भाव लेश्या के दो भेद बताये गये हैं (१) विशुद्ध भाव लेश्या -अकलुष द्रव्य लेश्या के सम्बन्ध होने पर कषाय के क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम से होने वाला आत्मा का शुभ परिणाम विशुद्ध भाव लेश्या है। १. विशेष जिज्ञासु देखें सद्धर्म मण्डल, द्वितीय आवृति, पेज ७२ १७३ २४१
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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