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________________ परन्तु वह न तो घोर तप करती है, न ही घोर वेदना सहती है, बल्कि वह अल्प दीक्षा पर्याय पाल कर ही सिद्ध हो जाती है। कर्म क्षय के लिये दो बातें आवश्यक है-(१) नवीन कर्मों के आगमन को रोकना तथा (२) संचित कर्मों का नाश करना । नवीन कर्मों का आगमन संवर से रुक जाता है तो संचित कर्मों के विनाश के लिये तपाराधन करना चाहिये (तप का विस्तृत विश्लेषण आगामी अध्याय आठ में किया गया है।) ___ कर्म क्षय के क्षेत्र में अपने पुरुषार्थ एवं पराक्रम द्वारा क्रमिक विकास करती हुई आत्मा जब तेरहवें गुण स्थान (गुणस्थानों का विस्तृत विश्लेषण आगामी अध्याय नौ में मिलेगा) में पहुंचती है, उस समय उसके चार घाती कर्म नष्ट हो जाते हैं। आत्मा के मूल गुणों की घात करने वाले होने से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय तथा अन्तराय कर्म घाती कर्म कहे जाते हैं। इनमें पहले मोहनीय कर्म का क्षय होता है तब उसके बाद तीनों कर्मों का एक साथ क्षय होता है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय होने पर आत्मा के ज्ञान-गुण पर पड़ा हुआ आवरण हट जाता है। यह आवरण पूर्णतया हटते ही आत्मा अनन्त ज्ञान वाली बन जाती है। दर्शनावरणीय कर्म के क्षय होने पर आत्मा का अनन्त दर्शन रूप गुण प्रकट हो जाता है। मोहनीय कर्म के क्षय होने से आत्मा में अनन्त चारित्र प्रकट हो जाता है एवं अन्तराय कर्म के क्षय हो जाने पर आत्मा में अनन्त शक्तियां उत्पन्न हो जाती हैं। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र और अनन्त वीर्य—ये जो आत्मा के चार मूल गुण हैं, वे इन चार घनघाती कर्मों के क्षय हो जाने पर पूर्णतः प्रकट हो जाते हैं। तेरहवें गुणस्थान केवल उनके शुभ कर्मों मात्र एक समय के लिये ही बन्धते हैं। आगामी चरण कर्म क्षय से कर्म मुक्ति का होता है। चौदहवें गुणस्थान में आत्मा योगों की प्रवृत्ति को भी रोक देती है। उस समय न मन कुछ सोचता है, न वचन कुछ बोलता है तथा न काया में कोई हलचल होती है। इस प्रकार योग निरोध हो जाने से कर्मों का आगमन सर्वथा रुक जाता है। साथ में बाकी बचे चार अघाती कर्म-वेदनीय, नाम, गौत्र तथा आयुष्य भी विनष्ट हो जाते हैं और आत्मा कर्म मुक्त होकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाती है। मुक्ति का अर्थ यही है कि कर्मों से सर्वथा मुक्त हो जाना। चार अघाती कर्मों के क्षय हो जाने से सिद्धात्मा में उसके चार गुण प्रकट होते हैं। वेदनीय कर्म के क्षय से अनन्त या अव्याबाध सुख, नाम कर्म के क्षय से अरूपी स्वरूप, गौत्र कर्म के क्षय से अगुरु लघुत्व तथा आयुष्य कर्म के क्षय से आत्मा को अजरामरता प्राप्त हो जाती है। संसार में जन्म मरण का कारण कर्म हैं। कर्मों को सर्वथा क्षय कर देना ही इस जन्य मरण के चक्र से छूट जाना है अर्थात् कर्म मुक्ति ही मोक्ष है। मुक्त हो जाने पर आत्मा पुनः संसार में नहीं आती-सदा काल के लिये आठ गुणों से संयुक्त बन कर सिद्धावस्था में ज्योति रूप बन जाती है। ___ कर्म बंध, कर्म क्षय एवं कर्म मुक्ति के इस विश्लेषण से मैं समझ गया हूं कि कर्म मुक्ति ही मेरा अन्तिम ध्येय है। अतः कर्म मुक्ति के लिये कर्म बंध को अवरुद्ध करना तथा कर्म क्षय हेतु धर्माराधना करना मेरे पुरुषार्थ का प्रधान कर्त्तव्य हो जाता है। इस ध्येय के प्रति नियोजित होने वाला पुरुषार्थ ही आत्मा का सत्पुरुषार्थ कहलाता है। मेरा प्रथम प्रयास हो कि मैं सत्पुरुषार्थी बनूं। २११
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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