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________________ उपक्रम के प्रारंभ को विपरिणामनोपक्रम कहते हैं। इन उपक्रमों से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा अपने योग्य पुरुषार्थ से कर्मों के मूल बंधानुसार नियत फल भोग, उदय उदीरणा तथा अवस्था तक में परिवर्तन कर सकती है। इस का अभिप्राय यही है कि यद्यपि एक बार बंध जाने पर कर्म अपना फल देते ही हैं, फिर भी आत्मा उनके फल देने के पहले ही धर्माराधना के बल पर उनके प्रभाव को मन्दतर बना सकती है। आत्म पुरुषार्थ कभी भी निरूपयोगी नहीं होता। इसी आत्म पुरुषार्थ के बल पर कर्मों का संक्रमण (संक्रम) भी किया जा सकता है। आत्मा जिस प्रकृति का कर्म बंध कर रही है, उसी विपाक में पुरुषार्थ विशेष से दूसरी प्रकृति के कर्म पुद्गलों को परिणत करना संक्रमण कहलाता है। इससे बंधे हुए कर्म एक स्वरूप को छोड़कर दूसरी सजातीय कर्म प्रकृति रूप बन जाते हैं। यह चार प्रकार का होता है -प्रकृति, स्थिति, अनुभाग एवं प्रदेश। .. आत्म पुरुषार्थ से सभी श्रेणियों के कर्म बंध में परिवर्तन लाया जा सकता है किंतु इसकी एक ही श्रेणी अपवाद रूप है और वह है निकाचित कर्मों की श्रेणी। निकाचित कर्म उन्हें कहते हैं जिनका फल कर्म बंध के अनुसार ही निश्चय रूप से भोगा जाता है और जिन्हें बिना भोगे आत्मा का छुटकारा नहीं होता है। निकाचित कर्म में कोई भी कारण नहीं होता। ये आत्मा के साथ प्रगाढ़ता से सम्बन्धित हो जाते हैं। बंध से लेकर कर्म की चार अवस्थाएं बताई गई है :-(१) बंध-मिथ्यात्व आदि के निमित्त से ज्ञानावरणीय आदि रूप में परिणत होकर कर्म पुद्गलों का आत्मा के साथ दूध पानी की तरह मिल जाना बंध कहलाता है। (२) उदय-उदय काल याने फल देने का समय आने पर कर्मों के शुभा-शुभ फल देने को उदय कहते हैं। (३) उदीरणा-आबाधा काल व्यतीत हो चुकने पर भी जो कर्म दलिक (समूह) पीछे से उदय में आने वाले हैं, उनको पुरुषार्थ विशेष से खींच कर उदय प्राप्त दलिकों के साथ भोग लेना उदीरणा है। (४) सत्ता–बंधे हुए कर्मों का अपने स्वरूप को न छोड़कर आत्मा के साथ लगे रहना सत्ता कहलाता है। कर्म अथवा कर्म के कारण होने वाले भव का अन्त करना अन्तक्रिया है। यों तो अन्तक्रिया एक ही स्वरूप वाली होती है किन्तु सामग्री के भेद से चार प्रकार की बताई गई है। (१) पहली अन्तक्रिया -अल्प कर्म वाली आत्मा की। मनुष्य भव में उत्पन्न ऐसी अल्प कर्म वाली आत्मा दीक्षित होती है, प्रचुर संयम, संवर और समाधि की साधना करती है तथा तपाराधन, शुभ ध्यान आदि से लम्बी दीक्षा पाल कर निर्वाण को प्राप्त हो जाती है। उसे उपसर्ग जनित घोर वेदना नहीं सहनी पड़ती हैं और घोर तप भी नहीं करना पड़ता है। (२) दूसरी अन्तक्रिया–महाकर्म वाली आत्मा की। मनुष्य भव में उत्पन्न ऐसी महाकर्म वाली आत्मा दीक्षित होती है, किन्तु महाकर्मों को क्षय करने के लिये वह घोर तप करती है और घोर वेदना भी सहती है। इस प्रकार की आत्मा थोड़ी ही दीक्षा पर्याय पाल कर सिद्ध हो जाती है। (३) तीसरी अन्तक्रिया –महाकर्म वाली तथा दीर्ध दीक्षा पर्याय पालने लावी आत्मा की। मनुष्य भव में उत्पन्न ऐसी महाकर्म वाली आत्मा दीक्षित होती है किन्तु महाकर्मों को क्षय करने के लिये वह घोर तप करती है और घोर वेदना सहती है। फिर वह दीर्घ दीक्षा पर्याय पाल कर सिद्ध होती है। (४) चौथी अन्तक्रिया अल्प कर्म वाली तथा अल्प दीक्षा पर्याय पालने वाली आत्मा की। मनुष्य भव में उत्त्पन्न ऐसी अल्प कर्म वाली आत्मा दीक्षित होती है २१०
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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