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________________ _ 'मैं' में समाहित सर्वहित मेरी आन्तरिक अभिलाषा बन गई है कि संसार के सभी प्राणी सुखी हों, निरापद बनें और इस अभिलाषा की पूर्ति में मैं किसी भी प्राणी के प्राण को दुःख न दूं तथा जो मुझे किसी भी प्रकार से दुःख पहुंचावे, उसे मैं शान्तिपूर्वक सहन करूं व उसके प्रति रंच मात्र भी द्वेष भाव न लाऊं। फिर मैं दूसरे प्राणियों के दुःखों को देखकर दयाभाव से ओतप्रोत बन जाऊं तथा उनके दुःखों को यथाशक्ति दूर करने का प्रयल करूं, उन्हें सुखी बनाने के कार्य करूं। सर्वकल्याण की मेरी यह भावना मेरे स्वकल्याण का मार्ग भी प्रशस्त कर देगी, क्योंकि सर्वहित में 'मैं' भी समाहित हो जाता हूं। वस्तुतः मेरी आत्म साधना सर्वहित की साधना बन जाती है। मेरा जीवन अहिंसापूर्ण बनता है, इसका सीधा प्रभाव मेरे सम्पर्क में आने वाले प्राणियो पर पड़ता है कि वे मेरी ओर से संभावित हिंसा के प्रहारों से बच जाते हैं। मेरे ही समान जब अधिकाधिक आत्माएं इस प्रकार की साधना में प्रवृत्त होती है तो अनेकानेक प्राणी आशंकित दःखों से रक्षित होकर वे भी अहिंसा को अपने जीवन में स्थान देने लगते है जिसके कारण समूचे सामाजिक वातावरण में अहिंसा, निर्भयता एवं पारस्परिक सौहार्द्रता का संचार होता है। मैं असत्य के आचरण से विरत होता हूं तो मेरे असत्य प्रयोग से दुःखी बन सकने वाले प्राणी सुरक्षित हो जाते हैं। इसी प्रकार मेरा अचौर्य व्रत अनेक प्राणियों के शोषण एवं संत्रास को रोक देता है तो मेरा ब्रह्मचर्य व्रत सारे समाज को सादगी की प्रेरणा देता है। संज्ञा पंचेन्द्रिय जीवों की श्वास भी रोक देता है। मैं जब अपरिग्रही बन निश्चय मानिये कि मेरे येन केन प्रकारेण परिग्रह अर्जन एवं संचय के प्रभाव से मुक्त होकर अनेक प्राणी राग द्वेष की विवर्जनाओं से बच जाते हैं और अपने भाव-परिणामों को विशुद्ध बनाने का अवसर पाते हैं। धार्मिकता से युक्त मेरी प्रत्येक क्रिया मेरी आत्मशुद्धि के साथ अन्य प्राणियों को निर्भीक एवं सदाशयी बनाती है। उनके उस आचरण परिवर्तन से समग्र समाज में एक प्रकार का उत्थानकारी धरातल तैयार होता है जिस पर वे प्राणी भी अपने पग बढ़ाने का सत्प्रयास करते हैं जो सामान्य वातावरण में अपनी चेतना को जागृत नहीं बना सकते थे। ___ समाज और व्यक्ति के अभिन्न सम्बन्धों की मार्मिकता को समझते हुए मैं जानता हूं कि यहां समाज में एक व्यक्ति अपने घर-परिवार ग्राम-समाज, राष्ट्र और विश्व में रहता है जहां प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अनेक अन्य व्यक्तियों एवं प्राणियों के सम्पर्क में आता है। इस दृष्टि से वह अन्य प्राणियों को अपने आचरण से प्रभावित करता है तो दूसरों के आचरण से यत्किंचित् रूप में स्वयं भी प्रभावित होता है। यह पारस्परिक प्रभाव मन, वाणी और कर्म के माध्यम से पड़ता है। कौन बाहर के प्रभाव से कितना ग्रहण करता है अथवा कि कौन अपने प्रभाव को बाहर कितने विस्तार से छोड़ता है यह व्यक्तिगत आत्म विकास पर निर्भर करता है। समझिये कि एक अन्य व्यक्ति ने मेरे प्रति दुर्भावना बनाई, फिर कुवचन मुझे कहे और मेरे पर आघात करने की चेष्टा की, उस समय यदि मेरे मन, वाणी और कर्म में दुर्बलता होगी तो मेरी वृत्तियां भी तुच्छ बन जायगी और उसकी तरह मैं भी हीन प्रवृत्तियों में लग जाऊंगा। इसके विपरीत यदि मेरा मन, मेरा वचन और मेरा कर्म सधा हुआ होगा तो मैं उसके समूचे व्यवहार को इस धैर्य और शान्ति से सह लूंगा कि वह स्वयं अपने व्यवहार पर लज्जित होकर उसमें शुभ परिवर्तन लाने का संकल्प कर लेगा। इस रूप में व्यक्ति-व्यक्ति अपना सत्प्रयास करें तो सारे समाज के सभी व्यक्तियों के आचरण में धीरे-धीरे ही सही, किन्तु एक शुभ परिवर्तन ला सकते हैं। इस प्रयास को ही लोक २१२
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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