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________________ कर्म बंध, क्षय एवं मुक्ति वस्तुतः स्व-पर कल्याण का जो पुरुषार्थ होता है, वह प्रारंभ की स्थिति है तो उसी पुरुषार्थ की अन्तिम परिणति कर्म मुक्ति के रूप में ही प्रतिफलित होती है। जहां तक शुभ कर्मों के बंध का प्रश्न है, कर्म बंध में भी पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है तो कर्म क्षय में कठोर पुरुषार्थ की। कर्ममुक्ति तो आत्म-पराक्रम की परमोत्कृष्टता की प्रतीक होती है। अतः कर्म बंध, क्षय एवं मुक्ति की प्रक्रिया का ज्ञान नितान्त आवश्यक है । जैसे कोई व्यक्ति अपने शरीर पर तेल की मालिश करके रेत पर लेटे तो रेत के कण उसके शरीर पर चिपक जायेंगे। उसी प्रकार मिथ्यात्व, कषाय, योग आदि से आत्म प्रदेशों में जब हलचल होती है तो जिस आकाश में आत्म प्रदेश होते हैं, वहीं के अनन्त - अनन्त कर्म योग्य पुद्गल परमाणु आत्मा के एक-एक प्रदेश के साथ बंध जाते हैं। कर्म तथा आत्म प्रदेश दूध पानी या लोहपिंड आग्नि की तरह एकमेक हो जाते हैं। आत्मा के साथ कर्मों का यह जो बंध होता है, उसे ही कर्म बंध कहते हैं । कर्म बंध चार प्रकार का कहा गया है - (अ) प्रकृति बंध - कर्म पुद्गलों में भिन्न-भिन्न स्वभावों तथा शक्तियों का पैदा होना । (ब) स्थिति बंध - कर्म पुद्गलों में अमुक काल तक आत्मा के साथ बंधे रहने की कालावधि का होना । (स) अनुभाग बंध - कर्म पुद्गलों में अनुभव के तरतम भाव का अर्थात् फल देने की न्यूनाधिक शक्ति का होना, तथा (द) प्रदेश बंध - कर्म पुद्गलों में न्यूनाधिक परमाणु वाले कर्म स्कंधों का सम्बन्ध होना । कर्म बंध का सम्पूर्ण ज्ञान इन चार प्रकारों से होता है कि बंधे हुए कर्म का स्वभाव कैसा है, वह बंध कितनी कालावधि का है, उसका अनुभव कैसा होगा तथा उसका घनत्व कितना है ? जैसे सौंठ, पीपल, कालीमिर्च आदि कई वस्तुओं को मिला कर लड्डू बनाया जाता है तो उस वस्तु बंध रूप लड्डू से कर्म बंध का स्वरूप समझिये । कल्पना करें कि वह लड्डू वायुहरण के लिये बनाया गया है तो वायुनाशक उस लड्डू की प्रकृति हो गई। वह लड्डू एक सप्ताह, दो सप्ताह या अमुक अवधि तक अपना निजी स्वभाव याने ताजगी बनाये रखेगा – यह उसकी स्थिति हो गई । उस लड्डू का स्वाद अधिक मधुर है या अधिक कटु—यह उसका अनुभाग, अनुभव या रस हुआ। उसी प्रकार प्रदेश यह होगा कि वह लड्डू छोटे आकार का है या मध्यम या बड़े आकार का । इस प्रकार कर्म बंध के ये चार पहलू हैं। कर्म बंध के प्रारंभ को उपक्रम कहते हैं, जो चार प्रकार का है— (१) बन्धनोपक्रम — कर्म पुद्गल एवं आत्म प्रदेशों के एकरूप सम्बन्ध होने को बंधन कहते हैं और इसी बन्धन के आरंभ को बन्धनोपक्रम । इसका अर्थ हुआ कि बिखरी हुई अवस्था में रहे हुए कर्मों को आत्मा से सम्बन्धित अवस्था वाले बना देना । (२) उदीरणोपक्रम - विपाक अर्थात् फल देने का समय नहीं होने पर भी कर्मों का फल भोगने के लिये प्रयत्न विशेष से उन्हें उदय — अवस्था में प्रवेश कराना उदीरणा है। उदीरणा के प्रारंभ का नाम है उदीरणोपक्रम । (३) उपशमनोपक्रम - कर्म उदय, उदीरणा, निधत्तकरण और निकाचना करण के आयोग्य हो जाएं इस प्रकार उनकी स्थापना करना उपशमना है और इसका आरंभ उपशमनोपक्रम है। इसमें आवर्तन, उदवर्तन और संक्रमण - ये तीन करण होते हैं । (४) विपरिणामनोपक्रम - सत्ता, उदय, क्षय, क्षयोपशम, उद्वर्तना, अपवर्तना आदि द्वारा कर्मों के परिणाम को बदल देना विपरिणामना है जिससे कर्म एक अवस्था से दूसरी अवस्था में बदल जाते हैं। इस २०६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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