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________________ महसूसगिरी, (७) कानों को मधुर लगने वाली तथा मन में हर्ष उत्पन्न करने वाली वाणी रूप सुखी वचन तथा (८) स्वस्थ, निरोग व सुखी काया। यह अनुभाव परतः भी होता है और स्वतः भी। पुद्गलों के भोगोपभोग, देश, काल, वय और अवस्था के अनुरूप आहार परिणाम रूप पुद्गलों के परिणाम तथा शीतोष्ण रूप स्वाभाविक पुद्गल परिणाम रूप जीव जिस रूप में सुख का अनुभव करता है, वह जीव का परतः सापेक्ष अनुभाव होता है। मनोज्ञ शब्दादि विषयों के बिना भी साता वेदनीय कर्म के उदय से जीव जो सुख का अनुभाव करता है, वह निरपेक्ष स्वतः अनुभाव होता है। तीर्थंकर के जन्मादि के समय होने वाला नारकी जीव का सुख ऐसा ही होता है। इसी प्रकार असाता वेदनीय कर्म का अनुभाव भी आठ प्रकार का है -(१) अमनोज्ञ शब्द, (२) अमनोज्ञ रूप (३) अमनोज्ञ गंध, (४) अमनोज्ञ रस, (५) अमनोज्ञ स्पर्श (६) अमनोज्ञ (अस्वस्थ) मन, (७) अमनोज्ञ वाणी तथा (८) दुःखी काया। यह अनुभाव भी परतः एवं स्वतः दोनों प्रकार का होता है। परतः अनुभाव पुद्गल, पुद्गल परिणाम, तथा स्वाभाविक पुद्गल परिणाम रूप तीन प्रकारों से जीव को दुःख भोग कराता है। स्वतः अनभाव की दृष्टि से असाता वेदनीय कर्म के उदय से बाह्य निमित्तों के न होते हुए भी जीव को असाता या दुःख का भोग होता है। महाबली कर्मराज मोहनीय मैं जानता हूं कि अष्ट कर्मों में मोहनीय कर्म को कर्मराज माना गया है क्योंकि मेरे आत्मस्वरूप के साथ सम्बद्ध होने वाले कर्मों में सांसारिकता के प्रति मोहग्रस्तता के कर्म महाबली होते हैं। यदि मैं अपनी सम्पूर्ण वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों में मोह-ममत्त्व का शमन और दमन कर दूं तो फिर ऐसा कोई कर्म नहीं रहता जिसका सरलता से क्षय नहीं किया जा सके। मैं अष्टकर्मों को पाप का वट वृक्ष मानूं तो मोहनीय कर्म उसकी जड़ कहलायगा। वृक्ष कितना ही विशाल क्यों न होउसका फैलाव भी कितना ही व्यापक क्यों न हो, यदि उसकी जड़ों को उखाड़ फैकू तो वह सारा वृक्ष धराशायी हो जायगा और उसके बेशुमार, पत्ते फल-फूल देखते-देखते सूख कर नष्ट हो जायेंगे। जड़ों को उखाड़ फेंकने का ही श्रम कठिन और कष्ट साध्य होगा। इसके बाद वृक्ष का पूर्णतया विनाश करने के लिये कोई उल्लेखनीय श्रम नहीं करना पड़ेगा। यही स्थिति मोहनीय कर्म की होती है। मोह-ममत्व ही सम्पूर्ण कर्म बंधन की जड़ के समान होता है। मोह उखड़ जाय तो अन्य कर्म बंधन स्वतः ही टूट जायेंगे। __ मैं इस दृष्टि से मोहनीय कर्म को आठों कर्म का राजा और महाबली मानता हूं। राजा को परास्त कर दिया जाय तो मान लिया जायगा कि उसके अन्य सभी योद्धा तथा सारी सेना परास्त कर दी गई है। संसारी जीव के नाते इस संसार के बाह्य पदार्थों एवं सम्बन्धों के साथ मानव की घनिष्ठ मूर्छा भावना होती है। वह समझता है कि मेरी हस्तगत सम्पत्ति और सत्ता मेरी है, घर-मकान मेरा है, परिवार, पली, पुत्र-पुत्रियां आदि मेरी हैं और सबसे बढ़कर यह शरीर मेरा है। सबके प्रति गहरा ममत्व ही मेरा मोह है। मैं जानता और देखता हूं कि वह मानव 'मेरे' समझे जाने वाले इन भौतिक पदार्थों एवं सम्बन्धों के लिये किस प्रकार अपना सारा समय, अपनी सारी शक्तियां और अपने सारे प्रयल नियोजित करता है ? रात-दिन इन्हीं की प्राप्ति के लिये अथवा प्राप्त उपलब्धियों को बनाये रखने व बढ़ाते रहने के लिये गंभीर रूप से चिन्तित रहता है। इस गाढ़ी मोहग्रस्तता के कारण वह १६१
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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