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________________ किसी भी आत्मार्थी अथवा लोकोपकार के कार्य में अपना मन एकाग्र नहीं बना पाता है। उसे हर वक्त बाह्य संसार का मोह सताता रहता है और वह संसार के बाह्य वातावरण में ही अपना सख खोजता रहता है। मोहजनित मूर्छा और प्रमाद अभेद्य आवरणों के रूप लेकर उसके आत्म स्वरूप पर छाये रहते हैं। ऐसी स्थिति को देखकर मैं अपने सम्यक ज्ञान और अपनी ऊर्ध्वगामी दृष्टि को भी कई बार इन आवरणों को भेद कर अपनी आन्तरिकता की जांच-परख करने में अपने आपको नियोजित कर पाता हूं। मोहनीय कर्म को बांधते और भोगते समय मेरी आत्मदशा असहाय जैसी हो जाती है जो मेरे लोभी मन और कामना ग्रस्त इन्द्रियों के नियंत्रण पाश से बंध कर छटपटाती रहती है, लेकिन उस पाश को तोड़ने का पुरुषार्थ नहीं कर पाती है। ___ मैं मानता हूं कि मोहनीय कर्म उसे कहते हैं जो आत्मा को मोहित कर देता है —उसे भले बुरे के विवेक से शून्य बना देता है। जैसे एक शराबी शराब पीकर अपना हिताहित सर्वथा भूल-सा जाता है और परवश बन जाता है, वैसे ही मोहनीय कर्म के दुष्प्रभाव से मेरा जीव भी सत् और असत् का विवेक खोकर पर-पदार्थों तथा सम्बन्धों में उलझ कर परवश हो जाता है। मोहनीय कर्म के मुख्य रूप से दो भेद माने गये हैं – यथा दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय (१) दर्शन मोहनीय –दर्शन मोहनीय कर्म सम्यक् अवबोध में रुकावट डालता है जिससे आत्मा की दर्शन-शक्ति कुंठित बन जाती है। दर्शन के तीन भेद किये गये हैं- (अ) मिथ्यादर्शन–मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से अदेव में देव बुद्धि और अधर्म में धर्म बुद्धि आदि रूप आत्मा के विपरीत श्रद्धान को मिथ्या दर्शन कहते हैं। (ब) सम्यक् दर्शन—यह दर्शन तब होता है जब मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम होता है और आत्मा में सम्यक् दर्शन के भाव उमड़ते हैं। सम्यक् दर्शन का उदय हो जाने पर मति, श्रुति आदि अज्ञान भी सम्यक् ज्ञान रूप में परिणत हो जाते हैं। (स) मिश्रदर्शन—मिश्र मोहनीय कर्म के उदय से यथार्थ तत्त्वों का प्रकाश भी फैलता है तो कुछ अयथार्थ तत्त्वों का भी आत्मा के श्रद्धान में अस्तित्व रहता है तब मिश्र दर्शन होता है। इस सम्बन्ध में एक शंका उठ सकती है कि सम्यक्त्व मोहनीय तो वीतराग देवों द्वारा प्रणीत तत्त्वों पर श्रद्धानात्मक सम्यक्त्व रूप से भोगा जाता है और वह दर्शन की घात नहीं करता तब उसे दर्शन मोहनीय के भेदों में क्यों गिना जाता है ? इसका समाधान यह है कि जैसे चश्मा आंखों का आवरण करने वाला होने पर भी देखने में रुकावट नहीं डालता, उसी प्रकार शुद्ध दलिक रूप होने से सम्यक्त्व मोहनीय भी तत्त्वार्थ -श्रद्धान में रुकावट नहीं डालता है परन्तु चश्मे की तरह वह आवरण रूप तो होता ही है। इसके सिवाय सम्यक् मोहनीय में अतिचारों की भी संभावना रहती है। औपशमिक और शायिक सम्यक्त्व दर्शन के लिये यह स्वच्छ दर्शात्मक के रूप भी है। इसलिये यह दर्शन मोहनीय के भेदों में दिया गया है। इस प्रकार दर्शन मोहनीय की स्पष्ट व्याख्या यह होगी कि जो पदार्थ जैसा है उसे उसी रूप में समझना और विश्वास करना यह तो दर्शन और इसको विपरीत रूप से समझना यह दर्शन मोहनीय। तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप दर्शन आत्मा का गुण होता है। इस गुण को मोहित (घात) करने वाले कर्म को दर्शन मोहनीय कहते हैं। सामान्य उपयोग रूप दर्शन से दर्शन मोहनीय कर्म का दर्शन भिन्न हो जाता है। (२) चारित्र मोहनीय—जिसके द्वारा आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करती है उसे चारित्र कहते हैं। यह भी आत्मा का गुण होता है। इस गुण को मोहित (घात) करने वाले कर्म को चारित्र मोहनीय कर्म कहते हैं। इसके दो भेद कहे गये हैं -(अ) कषाय मोहनीय–कष अर्थात् जन्म १६२
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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