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________________ कोमल शय्या आदि के रूप में एक या अनेक पुद्गलों का निमित्त पाकर जीव को निद्रा आती है। पुद्गल परिणाम रूप भैंस के दूध का दही आदि भी निद्रा का कारण होता है तथा स्वाभाविक पुद्गल परिणाम रूप बरसात की झड़ी आदि निद्रा में सहायक होती है। इस प्रकार मेरी आवृत्त दर्शन शक्ति ही मेरी दुर्बलता की प्रतीक बनी हुई है। किसी भी वस्तु स्वरूप को जानकर उसे देखने का जो प्रतिभास होता है, वह कम महत्त्व का नहीं होता। जैसे घड़ा एक बार देखा और जाना, फिर उसके बाद बिना घड़े की मौजूदगी के उसके आकार रंग आदि का जो प्रतिभास होता रहता है, वह वस्तु स्वरूप का सामान्य दर्शन है। इस आवृत्त दर्शन शक्ति के प्रकटीकरण के लिये दर्शनावरणीय कर्म बंध को धर्माराधन से क्षयोपशम और क्षय करते हुए चलना चाहिये। ज्ञान और दर्शन के बंधन जब मन्द हो जाते हैं तो ज्ञान और दर्शन की क्षमता अधिक बढ़ाई जा सकती है। वेदना की शुभाशुभता मुझे अनुकूल विषयों से जो सुख रूप तथा प्रतिकूल से जो दुःख रूप से वेदन अर्थात् अनुभव होता है, वह वेदनीय कर्म के प्रभाव से होता है। यों तो सभी प्रकार के कर्मों का वेदन होता है, परन्तु साता-असाता याने सुख-दुःख का अनुभव कराने वाले कर्मविशेष में ही वेदनीय रूढ़ है, इसलिये इस अनुभव से अन्य कर्मों का बोध नहीं लिया जाता है। वेदना की शुभाशुभता की दृष्टि से इस वेदनीय कर्म के दो भेद होते हैं - (१) साता वेदनीय—जिस कर्म के उदय से जीव को अनुकूल विषयों की प्राप्ति हो तथा शारीरिक एवं मानसिक सुख का अनुभव हो, वह साता वेदनीय कर्म होता है। (२) असाता वेदनीय—जिस कर्म के उदय से जीव को अनुकूल विषयों की अप्राप्ति से तथा प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति से दुःख का अनुभव होता है, उसे असाता वेदनीय कर्म कहते हैं। इस वेदनीय कर्म को मधु-लिपटी तलवार की उपमा दी जाती है कि जैसे तलवार पर लगे शहद का स्वाद साता वेदनीय के समान और तलवार की धार से जीभ कटने का दुःख असाता वेदनीय के समान है। वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति वीतराग गुणस्थान को छोड़कर बारह अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है। जीव को साता वेदनीय कर्म का बंध इन कारणों से होता है कि प्राण, भूत, जीव और सत्त्व पर अनुकम्पा—दया की जाय, उन्हें दुःख न पहुंचाया जाय, उन्हें शोक न कराया जाय जिससे कि वे दीनता दिखाने लगें, उनका शरीर कृश हो जाय और उनकी आंखों से आंसू व मुंह से लार गिरने लगे, उन्हें लकड़ी आदि से ताड़ना नहीं दी जाय तथा उनके शरीर को परिताप या क्लेश न पहुंचाया जाय। साता वेदनीय कार्मण शरीर प्रयोग नामक कर्म के उदय से भी जीव साता वेदनीय कर्म बांधता है। इसके विपरीत यदि प्राण, भूत, जीव और सत्त्व पर अनुकम्पा भाव न रखे, उन्हें दुःख, परिताप, क्लेश आदि पहुंचावे तथा उपरोक्त कार्यों से विपरीत कार्य करे तो उससे जीव को असाता वेदनीय कर्म का बंध होता है। असाता वेदनीय कार्मण शरीर प्रयोग नामक कर्म के उदय से भी जीव असाता वेदनीय कर्म बांधता है। साता वेदनीय कर्म का अनुभाव आठ प्रकार का होता है—(१) मनोज्ञ शब्द, (२) मनोज्ञ रूप, (३) मनोज्ञ गंध, (४) मनोज्ञ रस, (५) मनोज्ञ स्पर्श (६) मन की स्वस्थता एवं सुख की १६०
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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