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________________ किन्तु निग्रंथत्त्व की कसौटी के लिये मैं अपने तर्क को भी सक्रिय बनाये रखता हूँ। मैं हर किसी साधु को निग्रंथ नहीं मान लेता हूँ। किसी साधु के दर्शन होते हैं तो मेरा तर्क सतर्क हो उठता है। मैं जांचता हूँ-परखता हूँ कि वह साधु निग्रंथ है या नहीं और अरिहन्त देव की आज्ञा में चलता है या नहीं। जब मेरा तर्क सन्तुष्ट हो जाता है तभी मेरी आस्था मुड़ती है क्योंकि मेरी आस्था अंधी नहीं है। तीसरा प्रतिमान मुझे चाहिये सुधर्म का। यों तो हर अच्छी बुरी बात धर्म के नाम में लपेट कर ही की जाती है ताकि आस्थावान् लोगों को भ्रमित किया जा सके, लेकिन वे सब धर्म वास्तविकता से परे ही होते हैं। कुछ व्यक्तिपरक धर्म होते हैं जो श्रद्धा का केन्द्र व्यक्ति विशेष को बनाने की बात कहते हैं। वे धर्म भी उतने वास्तविक नहीं होते। सच्चा धर्म वही कहलायगा जो संसार की सभी आत्माओं में 'एगे आया' (एक ही आत्मा) के दर्शन कराता हो, जिसका स्पष्ट अर्थ यह है कि जो संसार के समस्त प्राणियों के प्रति अपने हृदय की दया को बिखेर देने की प्रेरणा देता हो। जो धर्म दयामय हो, वही सच्चा धर्म होगा—ऐसा मैं मानता हूँ और ऐसे धर्म का मार्ग प्रशस्त किया है अरिहंत देवों ने और ऐसे ही धर्म का प्रचार करते हैं निग्रंथ मुनिगण। इस प्रकार मैंने अपनी आत्म-विकास की महायात्रा में अपने विश्वसनीय तीनों प्रतिमान सुनिश्चित कर लिये हैं जो हैं—१. देव अरिहंत -सुदेव, २. गुरु निग्रंथसुगुरु तथा ३. धर्म दयामय—सुधर्म और इन्हीं प्रतिमानों को मैंने अपनी समग्र आस्था अर्पित कर दी है। इस समर्पण के पश्चात् मेरा आत्म-विश्वास सुदृढ़ बन गया है कि मैं अपने आत्मस्वरूप को भी अरिहंत देवों की आत्माओं के समान ही परमोज्ज्वल स्वरूप प्रदान करने में अवश्य सफल बनूंगा। सिद्धान्त व गुणमूलक संस्कृति किसी व्यक्ति विशेष के प्रति अपनी आस्था को समर्पित करने की अपेक्षा मैं सदा ही सत्य सिद्धान्तों तथा गुणमूलक संस्कृति के प्रति आस्थावान् बनने को श्रेष्ठतर मानता हूं। मेरी इस मान्यता के कई समुचित तथा पुष्ट कारण हैं। ____ मैं मानता हूं कि व्यक्ति-पूजा सामान्यतः किसी भी साधक को तटस्थ अथवा पक्षहीन नहीं रहने देती। वह उसे एक तरफ झुकाती है तो निश्चय है कि वह दूसरी तरफ से उपेक्षित बनता है। इससे वह भेद, हठ और पक्ष के भंवर में गिर जाता है। इसी भंवर से राग और द्वेष की ज्वालाएँ उठती हैं। जो इन ज्वालाओं में खुद भी सुलगने लग जाता है, वह फिर भला साधक ही कहाँ रहता है? वह पथभ्रष्ट हो जाता है। ऐसी व्यक्ति-पूजा का मैं अनुसरण कैसे कर सकता हूँ? मैं जानता हूँ कि कोई भी व्यक्ति पूजा जाता है तो अपने श्रेष्ठ सिद्धान्तों तथा उत्तम आचरण के आधार पर ही तो मैं व्यक्ति को क्यों अग्रिम स्थान दूं? मैं उन सिद्धान्तों और उस आचरण को ही प्रथम महत्त्व क्यों न दूं, जिन्होंने व्यक्ति की श्रेष्ठता का निर्माण किया है। अतः मैं सत्सिद्धान्तों को मानता हूँ, उत्तम आचरण को मानता हूँ और आत्मीय गुणों के विकास को मानता हूँ ये जिनमें पाये जाये वह व्यक्ति भी आस्था का केन्द्र बन सकता है। ____ मैं सत्सिद्धान्तों में अपनी आस्था का नियोजन इस दृष्टि से करता हूँ कि एक सिद्धान्त सदा एक समान रहता है और सिद्धान्त जिसे भी अपनी ओर प्रभावित करता है, वह प्रभावित व्यक्ति को परिवर्तित करता है। सिद्धान्त गुणमूलक होता है जो गुणी को उसके गुण में ढालता है और किसी १४१
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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