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________________ अन्य के साथ भेद नहीं करता। सिद्धान्तों पर आधारित सभ्यता अथवा संस्कृति ही दीर्घजीवी होती है। इसका कारण है कि सद्गुण और सत्सिद्धान्त व्यक्ति की विकासशीलता के सामने सदैव ज्योतिस्तंभों के रूप में चमकते रहते हैं। और सन्मार्ग दर्शाते रहते हैं। सिद्धान्त व गुणमूलक संस्कृति ही अपने यथार्थ अर्थ, में मूल्यों की संस्कृति होती है —ऐसा मैं मानता हूँ। वस्तुतः गुणों का नाम ही मूल्य हैं। गुण वे हैं जो गुणी को गुणवान् बनाते हैं या यों कहें कि एक मनुष्य को मनुष्यता के गुणों से विभूषित करते हैं। मनुष्य मात्र होना उतना सार्थक नहीं है, बल्कि यदि उसमें मनुष्यता के गुणों का सम्यक् विकास नहीं हुआ है तो वह निरर्थक भी कहला सकता है। मनुष्य होने के साथ मनुष्यता का होना अत्यन्त आवश्यक है। यदि ऐसा जल हो जिससे प्यास ही नहीं बुझती हो तो फिर उसे जल मानेगा ही कौन ? जल का गुण है प्यास बुझाना और यदि गुणी में उसके गुण का ही अभाव है तो गुणी निर्गुणी ही कहलायगा । इसी प्रकार मनुष्यता के अस्तित्व से ही मनुष्य का बोध होता है अतः मनुष्यता उसका मूल गुण है—उसका मुख्य मूल्य है। मनुष्य के लिये यही मूल्यात्मक जीवन है कि वह सर्वप्रथम मनुष्यता को धारण करे। यदि एक मनुष्य में मनुष्यता ही नहीं है तो वह गुणहीन होगा—मूल्यहीन कहलायगा। मनुष्यता होती है मानवोचित सिद्धान्तों तथा गुणों का पुंज । यही मनुष्य के मूल्यों का समूह भी होगा। मानवोचित विशेषण का क्या अर्थ लें? मानवोचित का अर्थ होता है जो मनुष्य के लिये उचित हो। मनुष्य के लिये उचित क्या? इस विषय पर वीतराग देवों ने सम्पूर्ण प्रकाश डाला है जिसे हम आत्मसात् करके अपने आप को भी मनुष्यता पहिचानने की कसौटी बना सकते हैं। इस पहिचान में मेरी मान्यता है कि मेरी आस्था भी उपयोगी होगी तो मेरा तर्क भी कार्य करेगा। व्यावहारिक वातावरण के प्रत्येक क्रिया-कलाप के साथ जब मैं अपने हृदय को जोडंगा तो स्वाभाविक रूप से मुझे समझ में आता रहेगा कि मानवोचितता क्या होती है ? उसे बताने की जरूरत नहीं पड़ेगी। वह स्वयंमेव मेरी वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों में समाहित होती जायगी जिसका सभी अनुभव कर लेंगे। एक हृदय से दूसरे, तीसरे और इस तरह कई हृदयों को स्पन्दित करती हुई मानवोचितता एक स्पष्ट मूल्य का रूप ले लेगी। अतः सब सिद्धान्त व गुणमूलक संस्कृति को ही मैं अपने और सभी प्राणियों के आत्मविकास के अबाध मार्ग के रूप में देखता हूं। सत्सिद्धान्त कौनसा? सद्गुण क्या? अथवा श्रेष्ठ मूल्य किसे कहें ? यह जांच-परख मुझे करनी होगी। मेरी आस्था मुझे बता देगी कि जो सिद्धान्त-निरूपण, गुण-प्रतिपादन एवं मूल्य-समर्थन वीतराग जैसे सुदेवों ने किया है तथा निग्रंथ जैसे सुगुरु जिसे परिभाषित कर रहे हैं तथा जिसका समस्त ज्ञान दयामय धर्म में समाविष्ट है, वह मेरे लिये माननीय है। मेरा तर्क भी मुझे बतायेगा कि जो सिद्धान्त, गुण और मूल्य नाना प्रकार के नाम से अथवा भांति-भांति के रूपों में मेरे सामने आते हैं, इसकी परीक्षा कैसे की जाय? जो सत्यांश है उसे कैसे धारण कर लें और जो असत्य है उसे कहाँ और कब छोड़ दें ? तर्क और आस्था से मंडित मेरा मन कसौटी का पत्थर बन जायगा जो प्रत्येक सिद्धान्त, गुण या मूल्य की रगड़ देख कर बता देगा कि कौन-सा सोना है और कौनसा पीतल ? यह भी बता देगा कि जो सोना है, वह कितना खरा है और कितना खोटा ? वीतराग देवों की आज्ञा यही बताती है कि सत्यांशों को संचित करते रहो ताकि एक दिन पूर्ण सत्य से साक्षात्कार हो सके। १४२
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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