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________________ सार्थक अनुभव रखते हों या स्वयं इस महायात्रा में अग्रगामिता के साथ गतिशील हों अथवा जिसके माध्यम से इस महायात्रा के गूढ़ रहस्यों तथा विधि-विधानों का सम्यक् ज्ञान होता हो। मेरी विश्वसनीयता के पहले प्रतिमान होंगे वीतराग के रूप में सुदेव जिन्हें अरिहंत नाम से जानते हैं। मेरे तर्क ने कई देव नामधारी व्यक्तित्वों की जांच परख की है तो अधिकांश को यह निर्देश देते हुए पाया है कि मुझे ही पूजो, मेरी ही स्तुति करो तब मैं ही तुम्हें तारूँगा। 'मैं ही सच्चा हूँ और बाकी सब झूठे हैं'–यह कथन मेरे तर्क को भाया नहीं। जो खुद खुद को ही सच्चा कहता है, वह हकीकत में कितना सच्चा होगा? लोग कहने चाहिये कि वह सच्चा है तो उसकी सच्चाई की तरफ नजर डाल सकते हैं। फिर 'व्यक्ति' कब तक सच्चा रहेगा और कब बदल जायगा—इसकी क्या गारंटी है ? इस वस्तुस्थिति को समझ कर मेरे तर्क ने निश्चय किया कि गुणमूलक व्यक्तित्व को ही अपनी आस्था का केन्द्र बनाया जाय, किसी व्यक्ति को नहीं, क्योंकि मेरा तर्क व्यक्ति-पूजा को कतई महत्त्व नहीं देता। ___ यही कारण है कि मेरे तर्क ने वीतराग या अरिहंत को सुदेव के रूप में प्रतिष्ठित कर मुझे आस्था को सौंप दिया है। वीतराग वे महापुरुष कहलाते हैं जो राग-द्वेषातीत हो जाते हैं -समभावी और समदर्शी बन जाते हैं। कौन समभावी या समदर्शी हैं इसका निर्णय मेरे तर्क ने कर दिया और यह भी बता दिया कि किसी व्यक्ति विशेष के प्रति ही निष्ठा बनाने या बनाये रखने का सवाल नहीं है। जो भी समभावी और समदर्शी व्यक्तित्व हुए हैं, वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे वे सब सुदेव हैं इसलिये वे ही मेरी विश्वसनीयता के प्रतिमान हैं मेरी श्रद्धा के केन्द्र हैं। तो पहला प्रतिमान मैंने निर्धारित कर लिया है देव अरिहंत को। अरिहंत का भी वही अर्थ है जो वीतराग का अर्थात् जिन महान् आत्माओं ने अपने समस्त घातीकर्म शत्रुओं (कर्मों) को परास्त कर दिया और जो समग्र ज्ञानादि चतुष्ट्य रूप आत्म-गुणों से विभूषित बन गये। ऐसे अरिहंत का आदर्श ही मेरे लिये सच्चा आदर्श हो सकता है और उन्होंने आत्म विकास का जो मार्ग बताया है, वही मेरे लेये ग्राह्य हो सकता है। इसलिये मैं उनकी आज्ञापालन को ही सबसे बड़ा धर्म मानता हूं। इस मान्यता के साथ ही मेरे तर्क का कार्य समाप्त हो जाता है और मेरा समूचा जीवन अमित आस्था से आप्लावित बन जाता है। जब मैंने सुदेव के रूप में अरिहंत जैसी महान् आत्माओं को अपनी विश्वसनीयता का पहला प्रतिमान निर्धारित कर लिया है तो शेष दो प्रतिमान–सुगुरु तथा सुधर्म भी वे ही हो सकते हैं जो अरिहंत देव की महानता की कसौटी पर खरे उतरते हों। मैंने अरिहंत देव की आज्ञा को ही प्रधानता दी है तो मेरे लिये सुगुरु वे ही हो सकते हैं जो उनकी आज्ञा में विचरण करते हों और स्वयं के निर्माण के साथ धर्म का प्रचार करते हों। ऐसे सुगुरु निग्रंथ होने चाहिये। निग्रंथ का अर्थ है ग्रंथिरहित । उन साधु-महात्माओं के जीवन में संसार के काम-भोगों या पदार्थों की अथवा सांसारिक वृत्तियों या प्रवृत्तियों की कोई ग्रंथि नहीं होनी चाहिये। इसीलिये मेरे तर्क ने सुगुरु पद के लिये मुझे समाधान दिया है कि सुगुरु वे, जो निग्रंथ हों। चूंकि अरिहंत देव प्रत्यक्ष में आज हमारे सामने विराजमान नहीं है अतः उनके ज्ञान-विज्ञान की ज्योति लिये निग्रंथ साधु ही कल्याण कार्य में लगे हुए हैं। 'गुरु-गोविन्द दोनों खड़े, काके लागू पाय' —की उक्ति के अनुसार आज का सीधा समाधान होगा-गुरु पद की प्रमुखता। मैंने सुगुरु पद के लिये निग्रंथ का चयन कर लिया है जिनके प्रति मेरी अमिट आस्था ढल रही है। १४०
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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