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________________ चाहिये। प्रतिकूलताएँ सामने आती हैं और दुःखदायी होती हैं इस कारण उनसे सफल संघर्ष करना फिर भी सरल होता है। परन्तु अनुकूलताओं के सुख के समय उनमें रहे हुए आकर्षण को समझना, अपने क्रियाकलापों को संयमित रखना और सबसे ऊपर सम्यक्त्व एवं समभाव को प्रखर बनाये रखना अपेक्षाकृत बहुत कठिन होता है। यदि उस समय में मुग्धता, प्रलुब्धता तथा मोहाविष्टता का भाव समा जाय तो वे अनुकूलताएँ आत्मा के किये कराये परिश्रम को तो नष्ट कर ही देती है अपितु असंज्ञा के ऐसे दलदल में पुनः फंसा देती है और आत्मस्वरूप को मिथ्यात्व के काले रंग में इस तरह रंग देती है कि उस दलदल से बाहर आना और काले रंग को मिटाना एक भगीरथ कार्य हो जाता अतः मैं अनुकूलताओं की उपस्थिति में अपने-आपको अधिक जागरूक बना लेता हूं और वह भी दो प्रकार से। एक तो उस प्राप्त अनुकूल सुख सुविधा में अपने को कतई असंयमित नहीं बनाऊं तो दूसरे, उन अनुकूलताओं को अपने आत्म-विकास की सहयोगी सामग्री बनालूं। समझिये कि यह मनुष्य जीवन जो मुझे मिला है। वह एक सुखदायी अनुकूलता है क्योंकि इसके कारण मेरी इन्द्रियाँ और मेरा मन कैसा भी अनुभव लेने में सक्षम है। एक प्रकार तो यह हो सकता है कि मैं काम भोगों की तरफ आकृष्ट हो जाऊं तथा इन्द्रियों व मन के विषयों में रम जाऊं। जिनेश्वर के सिद्धान्तों के प्रतिकूल श्रद्धा वाला बन जाऊंगा। यह दशा मिथ्यात्व की हो जाती है। दूसरा प्रकार होगा कि मैं प्राप्त इस मनुष्य जीवन का आत्म-साधना के हित में पूर्ण सदुपयोग करूं। यह मेरी आत्मा की जागृत अवस्था होगी तथा ऐसे समय में सम्यक्त्व का मेरे भीतर सद्भाव होगा। अतः परिमार्जन, संशोधन एवं संशुद्धि की प्रक्रिया के प्रति मेरी जितनी अधिक सावधानी होगी, उतना ही मैं प्रतिकूलताओं में तथा अनुकूलताओं में भी अपने-आपको संयम में स्थिर रख सकूँगा। मिथ्यात्व के अंधेरे को ऐसी मनःस्थिति के साथ मैं दूर हटाते रहने में और अपनी आन्तरिकता में सम्यक्त्व का प्रकाश फैलाते रहने में भी सफल हो सकूँगा। मिथ्यात्व-सम्यक्त्न संघर्ष मैं जब आत्म-नियंत्रण, आत्मालोचना, आत्म-समीक्षण, आत्म-चिन्तन, आत्म-दमन तथा परिमार्जन-संशोधन एवं संशुद्धि की प्रक्रिया में से प्रतिदिन गुजरता रहूंगा, तब मेरे भीतर मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व का तुमुल संघर्ष आरंभ हो जायगा। एक ओर विषय, कषाय, काम भोग, मोह, प्रमाद आदि के रूप में विकृत वृत्तियाँ मेरी इन्द्रियों को, मेरे मन को तथा मेरे 'मैं' को भी मिथ्यात्व की अंधकारपूर्ण मोहदशा की ओर खींचेगी तो दूसरी ओर मेरी जितनी साधी हुई, जागृति होगी उसके अनुसार मेरा 'मैं' अपने आपको स्थिर रखेगा एवं अपनी इन्द्रियों तथा मन को विदशा में जाने से रोकेगा। जब तक मैं विकारों का पूरी तरह से विनाश नहीं कर लूंगा तब तक अपने भीतर में यह कठिन संघर्ष चलता ही रहेगा। कभी दो पग इधर तो कभी दो पग उधर का दृश्य पैदा होता रहेगा। कभी पांव जमेगा तो कभी उखड़ भी जायगा। कभी पांव जमाकर सम्यक्त्व की दिशा में कदम बढ़ेंगे तो कभी पांव फिसल कर मिथ्यात्व की ओर झुक जायेंगे। कभी-कभी तो सम्यक्त्व की दिशा में बहुत आगे तक बढ़ जाने याने कि व्रती आदि हो जाने के बाद भी ऐसी फिसलन आ सकती है कि मैं लुढ़कता हुआ फिर से मिथ्यात्व के गढ्ढे में गिर पडूं। यह भीतर का द्वन्द्व बहुविध बहुरूपी बनकर चलता रहता है, किन्तु यह द्वन्द्व अवश्य ही इस तथ्य का प्रमाण होता है कि मेरे अन्तःकरण में आत्म-विकास की जागृति का सूत्रपात हो चुका है। १२४
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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