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________________ भी नहीं करूंगा। इसी प्रकार अन्य सभी इन्द्रियों के निग्रह से मैं राग-द्वेष के कारणक कर्मों का बंध नहीं करूंगा और पुराने बांधे हुए कर्मों की निर्जरा भी करूंगा। जब-जब भी मुझे मेरी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों की तरफ दौड़ाकर मुझे पीड़ित बनायगी, तब-तब मैं नीरस भोजन करने लगूंगा, अल्प भोजन करूंगा, खड़ा रह कर कायोत्सर्ग करूंगा और आवश्यकता समझूगा तो आहार का कतई त्याग कर दूंगा किन्तु काम भोगों की ओर मन को नहीं जाने दूंगा तथा अपनी साधना को विकृत नहीं होने दूंगा। मेरा जब ऐसा निश्चय बन जायगा कि चाहे शरीर छूट जाय परन्तु वीतराग देव की आज्ञा का उल्लंघन न करूं, तब मुझे मेरी इन्द्रियाँ संयम-पथ से विचलित नहीं कर सकेंगी। मैं समझता हूँ कि मेरा यह मन रूपी घोड़ा बड़ा उदंड, भयंकर और दुष्ट है तथा उन्मार्ग की ओर दौड़ता रहता है, मैं यह भी समझता हूं कि मैं इसे धर्म शिक्षा के द्वारा ही अपने वश में करके सम्यक् मार्ग पर दौड़ा सकता हूं। इन्द्रियों और मन के सारे विषय रागी-मनुष्य के लिये दुःखदायी होते हैं किन्तु वीतराग पुरुष को ये विषय कभी तनिक-सा भी दुःख नहीं दे सकते हैं ऐसा सोचकर मैं राग और द्वेष को जीतने तथा मोक्ष की ओर आगे बढ़ाने वाली कठिन साधना में निरत बना रहूंगा । यही मेरा आत्म-समीक्षण से आत्मचिन्तन तथा आत्म-दमन का क्रम होगा जिससे मैं भलीभांति अपने स्वरूप-दर्शन करूंगा तथा निरन्तर करता रहूंगा। परिमार्जन, संशोधन व संशुद्धि __आत्म-स्वरूप के निरन्तर निरीक्षण-परीक्षण की प्रक्रिया से मैं जब अपने दोषों को पहिचान लूंगा, उनके कारणों को जान लूंगा तथा उनके घनत्व को भी समझ लूंगा तब उन्हें परिमार्जित कर लेने की मेरी अभिलाषा प्रबल बन जायगी, क्योंकि मैं यह भी सुनिश्चित कर सकूँगा कि किस प्रकार की साधना के बल पर उन दोषों का सफलतापूर्वक परिमार्जन हो सकेगा? मेरी प्रक्रिया तब त्रिरूपवती हो जायगी–परिमार्जन, संशोधन एवं संशुद्धि की प्रक्रिया। परिमार्जन याने मैल को मिटाना, संशोधन याने स्वरूप को सुधारना तथा संशुद्धि याने मैल को पूरी तरह धोकर स्वरूप को शद्ध बना लेना। जैसे किसी धब्बों वाले कपड़े को उजला बनाना हो तो पहले उसके चिकने धब्बों पर किसी ऐसे रसायन का प्रयोग करना पड़ेगा जिसके असर से उन धब्बों का मैल गलकर मिटने लगे। फिर पूरे कपड़े पर साबुन आदि का प्रयोग करना पड़ेगा जिससे कि उसका समूचा स्वरूप सुधरने लगे। उसके बाद साफ पानी से धोकर उसे पूरी तरह उजला बना सकेंगे। यही क्रिया मैली आत्मा को उजली बनाने के लिये भी करनी होगी। यदि निष्ठापूर्वक मैं इस त्रिरूपवती क्रिया पर आचरण करूं तो कोई कारण नहीं कि मैं अपने आत्म-स्वरूप को परम विशुद्ध न बना सकू। मैं मानता हूं कि परिमार्जन, संशोधन एवं संशुद्धि की प्रक्रिया निरंतर क्रियाशील प्रक्रिया बन जाती है क्योंकि मेरा 'मैं' एक पल के लिये भी निष्क्रिय नहीं होता है। मैं निरन्तर कोई न कोई क्रिया करता रहता हूं और उस क्रिया से सम्बन्धित कर्म बंध मेरे होता रहता है। अशुभ क्रिया होगी तो अशभ कर्मों का बंध होगा और उसके कारण मेरे आत्म-स्वरूप पर मैल की एक और परत चढ़ेगी। उस मैल को मांजने, सुधारने व धोने की प्रक्रिया भी तब मैं साथ-साथ में चलाऊंगा। किन्तु शुभ क्रिया होगी और शुभ कर्मों का बंध होगा तब भी मुझे उनके शुभ फल का उपभोग करना होगा। शुभ फल का उपभोग करते समय सच पूछे तो मेरी सावधानी और अधिक बढ़ जानी १२३
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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