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________________ मिथ्यात्व—सम्यक्त्व संघर्ष की वेला में मेरा 'मैं' द्विरूपी हो जाता है अथवा यों कहें कि वह दो भागों में बंट जाता है। एक 'मैं' दूसरे से कहता है ऐ मूर्ख, क्या संयम और साधना की बात करता है ? देख, यह मनुष्य तन मिला है—सशक्त इन्द्रियाँ और मस्त मन मिला है। इनको पूरी तरह काम में ले और संसार के काम भोगों का आनन्द उठा। ऐसा तन और जीवन बार-बार नहीं मिलेगा। जवानी दो दिन में बीत जायगी और फिर दूसरे लोगों को ये आनन्द उठाते हुए देखकर पछतायगा। तेरे तन की आज जवानी है, सुगठित स्वास्थ्य है, धन और सारी सुख सामग्री सामने है देखता क्या है मस्त बन और मौज उड़ा। जिनेश्वरों के सिद्धान्तों का आज कोई औचित्य नहीं है। दूसरा 'मैं' इसे सुनता है और एकदम कोई उत्तर नहीं दे पाता है, बल्कि विचार में पड़ जाता है। तब पहला 'मैं' अधिक जोश से कहने लगता है—अरे, सोच में क्या पड़ गया है ? यह आयु सोच करने की नहीं है—बैठने और चलने की भी नहीं है। यह आयु तो हजार-हजार उमंगों के साथ उड़ने की है। सुन, कितना कर्णप्रिय संगीत आ रहा है ? सुनकर तबियत बाग-बाग हो उठती है। देख, कितनी रूपवती कन्याएँ तुझे रिझाने के लिये सामने खड़ी हैं? क्या इनकी अनुपम सुन्दरता तुझे मुग्ध नहीं बना रही है ? सूंध, कितनी मस्त बना देने वाली इत्रों और सेंटों की सुगन्ध है ? सूंघकर ही तन-मन में मस्ती छा जाती है। तेरे सामने कितने प्रकार के सुमधुर तथा सुस्वादु व्यंजन रखे हुए हैं, एक कौर चखकर तो देख_फिर कहीं उंगलियाँ ही न काट खावे? और इस शयनगह में प्रवेश तो कर_इसकी हर सजावट का स्पर्शसुख तो महसूस कर, तेरा रोम-रोम सुख के हिंडोल में झूलने लगेगा। कुछ भी सोच मत-रंग, तरंग और उमंग के इस सरोवर में आंखें बन्द करके कद जा -सखों का पार नहीं है। इसका 'मैं' और अधिक चिन्ताग्रस्त हो गया तब तक वह चिन्तनमग्न नहीं हो पाया था। वह किंकर्त्तव्यमूढ़ता में पड़ा हुआ था। यह देखकर तो पहले 'मैं' का हौंसला बहुत ज्यादा बढ़ गया। उसने अपनी दासियों और दास को आदेश दिया कि वे इस दूसरे 'मैं' को पकड़ कर मेरे पास ले आवें, ताकि हम दोनों आलिंगनबद्ध होकर एक हो जावें और संसार के भोग-परिभोग मस्त होकर भोगें। तब दूसरा 'मैं' कुछ जागा क्योंकि उसे अपने स्थान से डिगाये जाने का खतरा पैदा हो गया था। जागा तो उसकी चिन्तन-धारा भी सक्रिय हुई। अपने भीतर ही उसने विचार शुरू किया पहले कि क्या उस 'मैं' के कहने में कोई सच्चाई है ? क्या मनुष्य तन संसार के काम भोग भोगने के लिये ही मिला है अथवा चार गति चौरासी लाख योनियों की यह दुर्लभ प्राप्ति, धर्म का साधन बनने के लिये बड़े पुण्योदय से मिली है? यह पुकारने वाला 'मैं ' क्या अलग है और क्या 'मैं' अलग हूँ ? यदि हम दोनों एक हैं तो वह मेरे से बहक कर अलग क्यों रह गया है? क्या मेरा यह कर्तव्य नहीं है कि पहले तो मैं ही स्थिर बना रहूं और फिर उस 'मैं' को भी अपने में मिला लूं? हम दोनों एक ही तो हैं—वह बहका हुआ भाग और मैं सधा हुआ भाग। ज्यों-ज्यों ये प्रश्न दूसरे 'मैं' को मथने लगे, उसका चिन्तन पुष्ट होता गया। तब उसने अपनी चुप्पी तोड़ी। वह स्नेह भाव से मधुर स्वर में बोला-भाई, तुम मुझे पुकार रहे हो यह दोहरी भूल कर रहे हो। एक तो तुम खुद पदार्थ-मोह और काम भोगों में पागल बन गये हो तो मुझे भी पतित बनने का आह्वान कर रहे हो। तम सोचो कि क्या तम सही जगह पर खडे हो? क्या तुम्हें अपनी जगह से कुछ भी दिखाई दे रहा है ? जब घटाटोप अंधकार में खड़े हो तो भला तुम्हें कुछ भी दिखाई थोड़े ही दे रहा होगा? देखते नहीं, मैं प्रकाश में खड़ा हूं —मेरी सम्यक्त्व की पवित्र जगह है और तुम मिथ्यात्व के अंधेरे में अपने आपसे विस्मृत हो। यों मानो कि तुम अंधे हो और मैं दृष्टिवान् । इसलिये अच्छा होगा कि तुम ही १२५
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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