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________________ परिस्थितियाँ बड़ी जटिल होती हैं और कई बार मैं उनसे प्रभावित हो जाता हूं। और परिस्थितियों के दबाव से मैं कभी-कभी आत्म-नियंत्रण से फिसल जाता हूँ। ऐसे समय पर यदि मैं निष्क्रिय रहूं तो वह फिसलन और उससे मेरा पतन बढ़ता रह सकता है, किन्तु मैं अपनी सम्यक्त्वी सक्रियता कभी नहीं त्यागता। तब मैं आत्मालोचना की पद्धति अपनाता हूँ। वह यह कि दिन भर के अपने अच्छे-बुरे क्रियाकलापों का लेखा-जोखा मैं सायंकाल और रात भर का लेखाजोखा प्रातःकाल लेता हूँ। और अवधि की दृष्टि से प्रति पक्ष और आगे प्रति संवत्सर भी व्यापक रूप से लेखा-जोखा लेता हूं। इसका परिणाम यह होता है कि मैं अपनाई गई तथा अपनाई जाने वाली वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों को परीक्षा बुद्धि से जांचता-परखता हूँ कि उनमें कितना खरापन रहा और कितनी खोट रही? फिर आगे के लिये संकल्प लेता हूँ कि जितना खरापन है उसे बढ़ाऊं तथा जितनी खोट है उसे घटाऊं और खत्म करूं। आत्मालोचना का यह क्रम में नियमित रूप से चलाता हूं जिससे मेरी अपनी भीतरी झांकी मुझे दीखती रहती है। उस झांकी के सामने रहने से वास्तव में होता यह है कि प्रायश्चित से पूर्व कृत पाप-कार्यों के सम्बन्ध में मेरा अन्तःकरण धुल कर स्वच्छ बनता है तो उसमें नित नवीन जागृति भी पैदा होती है कि किये हुए पाप कार्यों की पुनरावृत्ति न हो तथा जो अशुभता वर्तमान है उसे भी शुभता में बदलते जावें। इस तरह आत्मालोचना निर्मल जल का काम करती है जिससे मन का मैल धुलता रहता है। इस क्रम का यह प्रभाव होता है कि धुलते-धुलते मैल की जमावट कम होती जाती है तो चेतना के अत्युच्च विकास के साथ दर्पणवत् प्रतिबिम्बन विशुद्ध होते जा रहे आत्मस्वरूप में भी होने लग जाता है। __ मैं आत्मालोचना के मनोवैज्ञानिक महत्त्व को बड़ा उपयोगी मानता हूँ। मैं जान-बूझकर एक अकार्य करता हूं अथवा अनजाने में भी मेरे से गंभीर भूल हो जाती है तब भी मैं इसे पसन्द नहीं करता कि कोई मेरी निन्दा तो दूर, सच्ची आलोचना भी करे | मैं उसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न मानकर संघर्षरत हो जाता हूं। किन्तु जब मैं अपनी मानसिकता को ही इस तरह मोडूं कि मैं ही अपनी प्रवृत्तियों तथा भूलों की स्वयं ही आलोचना करूं तथा अपने गुरुजनों के समक्ष उनकी निन्दा करके प्रायश्चित करना चाहूं तब मेरी प्रकृति में नम्रता का समावेश होगा और उस व्यक्ति के प्रति भी मैं सरलता धारण किये रहूंगा जिसके प्रति मैंने द्वेष-भाव उभारा होगा। इस प्रकार महसूस करने का मन का स्वभाव ही बदलता चला जायगा। मैं अपनी अकृति या भूल को वैसी ही मानकर उसका परिहार करने की तत्परता भी दिखाना चाहूंगा । मैं अपनी क्रियाओं पर जब पीछे नजर डालूंगा और गुरु के समीप अपने दुष्कृत्यों की आलोचना-निन्दा करूंगा तो मुझे भी भीतर में वैसा ही हल्कापन महसूस होगा जैसा कि एक भारवाही को अपना भार उतार देने पर महसूस होता है। मेरे मन में आता है कि जैसे एक बालक बोलते हुए सरल भाव से अपना कार्य-अकार्य सब बता देता है, उसी प्रकार मैं भी आत्मार्थी बन कर माया और मान को छोड़ दूं तथा सरल भाव से अपने दोषों की आलोचना कर लूं। योग्य व्यक्ति के समक्ष की जाने वाली ऐसी आलोचना मुझे शास्त्र-श्रवण में भी कुशल बनायगी तो सच्ची आराधना का बल भी प्रदान करेगी। इसलिये पहले के दोषों की पहले तथा बाद के दोषों की बाद में आलोचना नियमित क्रम से करते रहना चाहिये। साधु भी यदि कोई अकृत्य करले और बिना आलोचना किये यदि वह ११८
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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