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________________ काल धर्म को प्राप्त हो जाय तो वह उसकी आराधना नहीं होगी, फिर मेरे जैसी सामान्य आत्मा की आराधना के लिये तो अधिक पुष्टि की जरूरत पड़ेगी। एक बात अवश्य है कि यदि शुद्ध भावपूर्वक आलोचना करते हुए स्मरण शक्ति की दुर्बलता से अथवा किसी तरह की जल्दबाजी से किसी दोष की आलोचना भूल से रह जाय तो वह क्षम्य मानी जायगी क्योंकि आलोचना की शुद्ध भावना के साथ ही माया, मद और गारव को गालने से उसका आराधक पद बना रहता है। आत्मालोचना करने वाले की आठ प्रकार से गुण सम्पन्नता मानी गई है—जाति सम्पन्न, कुल सम्पन्न, विनय सम्पन्न, ज्ञान सम्पन्न, दर्शन-सम्पन्न, चारित्र-सम्पन्न, क्षान्त-क्षमाशील रहने वाला तथा दान्त-इन्द्रियों का दमन करने वाला। मेरी मान्यता है कि आत्मालोचना और माया का कभी गठजोड़ नही रह सकता है। यदि मैं मायापूर्वक आत्मालोचना करता हूं तो वह वास्तविकता नहीं होगी। आत्मालोचना में माया का कोई स्थान नहीं है। यश कीर्ति की परवाह किये बिना आत्मालोचना सदा निष्कपट, सरल एवं शुद्ध भाव से ही होनी चाहिये। ऐसा भी मैं नहीं सोचूं। मुझे यह भय रखना भी अनुपयुक्त होगा कि आत्मालोचना से मेरी कीर्ति और मेरा यश मिट जायगा। किन्तु जो मायापूर्वक आलोचना करता है अथवा आलोचना नहीं करता, वह हर समय सशंकित रहता है कि उसका दोष दूसरों पर जाहिर तो नहीं हो गया है। इस सशंक भय के साथ वह मन ही मन पश्चाताप की आग में भी जलता रहता है। ___ प्रतिक्रमण के माध्यम से भी आत्मालोचना का कुछ रूप अपनाया जाता है। प्रतिक्रमण का अर्थ है—पापों से पीछे हटना। आत्मा के दर्पण पर लगे धब्बों को आत्मा ही देखेगी और संकल्पपूर्वक उन्हें हटायगी—यह उस आत्मा का प्रतिक्रमण होगा। आत्मालोचना याने अपनी ही निन्दा, तो प्रतिक्रमण का अर्थ होगा इन निन्दित कार्यों से पीछे हटने का संकल्प अर्थात् उनकी पुनरावृत्ति नहीं करना। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग से अपनी आत्मा को हटाकर फिर से सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र में लगाना प्रतिक्रमण कहलाता है, शुभ योग से भटक कर अशुभ योग में गई हुई आत्मा को फिर से शुभ योग में अवस्थित करने का नाम ही प्रतिक्रमण है। जो आत्मा, अपने ज्ञान, दर्शन आदि रूप स्थान से प्रमाद के कारण मिथ्यात्व आदि के स्थानों पर चली जाती है, प्रतिक्रमण करके फिर से मुड़कर अपने स्थान पर आ जाती है। मैं आत्म विकास की प्रक्रिया में प्रतिक्रमण के व्यापक महत्त्व पर विचार करूं तो वह बड़ा उपयोगी होगा। प्रतिक्रमण के आठ भेद किये गये हैं—(१) प्रतिक्रमण-सीधा सा अर्थ है, उल्टे पैरों वापस मुड़ना। यह दो प्रकार का होता है—प्रशस्त एवं अप्रशस्त । मिथ्यात्व आदि का प्रतिक्रमण प्रशस्त तो सम्यक्त्व आदि का प्रतिक्रमण अप्रशस्त कहलाता है। इसका भाव रूप यह है कि वीतराग देव रूपी राजा ने संयम रूपी महल की रक्षा करने की आज्ञा दी। उस संयम की किसी साधक ने विराधना की और ढिठाई भी की तो रागद्वेष रूपी रक्षकों ने उसे मार डाला याने कि वह जन्म-मरण के चक्र में फँस गया। कोई साधक प्रमादवश असंयम अवस्था को प्राप्त हो जाय, किन्तु उस अवस्था से पुनःसंयम में लौट आवे और असंयम में फिर से प्रवृत्ति न करने की प्रतिज्ञा कर ले तो वह मुक्ति का अधिकारी हो जाता है। (२) प्रतिचारणा—संयम के सभी अंगों में भली प्रकार चलना और सावधानतापूर्वक संयम को निर्दोष पालना। इसका भाव रूप यह है कि आचार्य रूपी सेठ ने संयम रूपी महल की साल-सम्हाल करने की आज्ञा दी। एक साधु ने प्रमाद और शरीर के सुख में पड़कर ११६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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