SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 504
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४५६ ) प्रव्रज्या पूर्वकाल में "एहि भिक्षु" इस वाक्य से प्रव्रज्या हो जाती थी । जब भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी तब प्रव्रज्या देने का कार्य बुद्ध ने अपने पुराने शिष्यों को सौंप दिया था । दीक्षार्थी प्रथम शिर मुण्डा कर दीक्षा दायक स्थविर भिक्षु के पास जाता और उनके सामने घुटने टेक शिर नवा कर हाथ जोड़ कर तीन बार कहता "बुद्धं सरणं गच्छामि " " धम्मं सरणं गच्छामि" "संघं सरणं गच्छामि " अर्थात् — मैं बुद्ध की शरण में जाता हूँ। मैं धर्म की शरण में जाता हूँ। मैं संघ की शरण में जाता हूँ । इस प्रकार तीन बार शरण स्वीकार करने पर प्रव्रज्या विधि हो जाती थी । परन्तु जब भोजनादि हीन स्वार्थों के लिए भिक्षु बढने लगे तब उनके लिये कई कड़े नियम बनाये गये जिनके अनुसार प्रब्रज्यार्थी के लिये किसी विद्वान् भिक्षु को अपना उपा ध्याय बनाकर उसके सान्निध्य में दो वर्ष तक रहना आवश्यक हो गया। इसके अतिरिक्त प्रव्रज्यार्थी की परीक्षा कर योग्य ज्ञात होने पर निम्नलिखित बातों की जांच की जाती है । जैसे उसे कुछ रोम, गड, किलास, क्षय, अपस्मार, नपुंसकत्व आदिमारियां तो नहीं है ? दीक्षार्थी स्वतन्त्र ऋणमुक्त, वयःप्राप्त होना चाहिए। उसे माता पिता की अनुज्ञा प्राप्त होनी चाहिए । राजा का सैनिक न होना चाहिए इत्यादिः ।
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy