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________________ * कण्ठस्थ करती आयी हैं। और उनका अर्थ भी गुरुजनों द्वारा सीखते आये हैं। इस कारण जनसंघमें 1. इस ग्रन्थका गौरवपूर्ण स्थान सुस्थिर रहा है। आज प्रायः प्रत्येक प्राचीन भण्डारमें इस ग्रन्थकी सचित्र प्रतियाँ मिले विना रहती नहीं। संसारी अवस्थामें पन्द्रह वर्षकी आयुमें दीक्षा लेनेके लिये पूज्यपाद गुरुदेवके पास पालिताणाम . 'रणशी देवराजकी धर्मशाला' में मैं साथ रहा था तव इस ग्रन्थकी सभी गाथाएँ कण्ठस्थ करके शीघ ही अर्थका भी अवगाहन किया था लेकिन १६वें वर्षमें दीक्षा लेनेके पश्चात् पूज्य गुरुदेवके पाससे पद्धति-पुरग्सर इस ग्रन्थका अभ्यास आरम्भ किया तब इसका कोई व्यवस्थित और रोचक भाषान्तर देखनेमें नहीं आया। मैंने सोचा कि जिस ग्रन्थको सैंकड़ों विद्यार्थी पढ़ते हैं, उस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थका उत्तम अनुवाद न हो यह दुःखद और लजाजनक वात थी। दूसरी ओर में उस समय वहुत छोटा था, इतनी छोटी आयुमें भाषान्तर-अनुवाद करनेका साहस कैसे करूँ ? भाषान्तरको गुरुदेव करने भी कर देंग: ऐरा बहुतसे विचार उपस्थित हुए। दीक्षा लिये हुए चार-छः महीने हुए थे कि लिखनेका उत्साह आर वेग ऐसा था कि लम्बे समय तक उसे दवाये नहीं रख सका। अन्ततः गुरुदेवको कहकर कामालाउ स्वीकृति प्राप्त करके-छपानेके लिये नही, अपितु केवल मेरे स्वयंके आनन्दक लिए हा भाषान्तर करना था। भाषान्तर करनेका अभ्यास करना था। लेखनकलाको विकसित करना था। * वृद्धिको अधिक तेजस्वी बनाना था, अतः मैने तो आंख मूंदकर 'जेसा आता है उतना अनुवाद करना' ऐसा निश्चित करके भाषान्तर आरम्भ किया। प्रारम्भमें कच्चा-कच्चा लिखा और वादमें उसीको सुधारकर । पक्का लिखा। इस भाषान्तरका आरम्भ करनेसे पहले 'संग्रहणी' के साथ सम्बन्ध रखनेवाले विषय आगम तथा * प्रकरण आदि जिन-जिन ग्रन्थोंमे थे, उन्हें मैंने पहले देखकर बहुत-से संकेत उद्धृत कर लिये। इसमें है दो महीने बीत गये। साथ ही साथ पूर्वापरमें कहाँ विरोध और कहाँ विस्तार आता है ? इन सभी बातोंका अवगाहन भी कर लिया जिससे भाषान्तर करते समय मेरा यह परिश्रम भी मुझे अच्छा * सहायक बना। क्लिष्ट तथा अवोध्य कार्य पूज्यपाद गुरुदेवकी कृपासे धीरे धीरे सरल होता गया और जहाँ-जहाँ अर्थ-संयोजनमें कठिनाई होती वहाँ-वहाँ अपने पूज्यपाद गुरुदेवोंको पूछकर समाधान प्राप्त कर लेता था ऐसा करते हुए अन्तमें सम्पूर्ण प्रेसकॉपी तैयार हो गई। वादमें वह प्रेसकॉपी पूज्यपाद गुरुदेवोंको संशोधनके लिये सोंप दी। मेरे पूज्य तीनों ही गुरुदेवोंने उसका पूर्णरूपसे अवलोकन कर। लिया। योग्य शोधन-परिवर्धन हो जानेके बाद पूज्यपाद गुरुदेवोंने मेरी पीठ थपथपाई, मुझे प्रोत्साहित करके मेरे कार्यकी बहुत-बहुत अनुमोदन की। पूज्यपाद गुरुदेवोंको बहुत आश्चर्य हुआ, क्योंकि यह । कार्य इतना सुन्दर और तीव्रतासे मैं कर सकूँगा ऐसी धारणा नहीं थी किन्तु गुरुकृपा, पूर्वजन्मके पुण्य । और ज्ञानोपासना तथा सभीकी शुभकामनाके कारण एक अतिमहत्त्वपूर्ण ग्रन्थका भाषान्तर पूर्ण हो गया। मुझे भी पूर्ण सन्तोष हआ। संग्रहणी ग्रन्थके प्रति मुझे असाधारण मोह तथा आकर्षण था, और इस प्रकार इस ग्रन्थकी मेरे द्वारा यतकिञ्चित सेवा हई। अभ्यासीयोंके लिये थोडा वहत, समुचित, है मचिकर हो वैसा भाषान्तर कर सका इससे मुझे बहुत तुष्टि-तृप्ति मिली। भाषान्तरके समय साथ-साथ ही मैंने अपने हाथोंसे संग्रहणीके चित्र बनानेका कार्य भी चालू
SR No.022874
Book TitlePrastavana Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherMuktikamal Jain Mohanmala
Publication Year2006
Total Pages850
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size28 MB
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