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________________ + किया। छोटी अवस्थामें छलांग लगाने जैसी बात थी, क्योंकि चित्र बनानेके लिये बहुत समझ, बुद्धि, सूझ-बूझ और ज्ञान आदि बहुत अपेक्षा रखते हैं। चित्र बनानेकी कुछ शिक्षा संसारी अवस्थामा * जनशिक्षणके मेरे विद्यागुरु श्री चन्दूलाल नानचन्दसे मैंने प्राप्त की थी। वे मेरी जन्मभूमिमें जनसंधक शिक्षकके रूपमें पाटशालामें रहे थे। वे जैनतत्त्वज्ञानके प्रथम कोटिके विद्वान् थे। वे लेखन -चित्रकार्य * करते थे। सुन्दर चित्र बनाना जानते थे। उनका काम देखकर मैंने भी प्रेरणा प्राप्त की थी। अत. उनका कार्य देखकर प्राप्त की हुई शिक्षा मुझे चित्र बनानेमें सहायक हुई। मेरे गुरुदेवोंका में प्रति अगाध-अपार वात्सल्य ऐसा था कि मेरे द्वारा उत्तम भाषान्तर सम्पन्न हो तभी उसे पकाशित करने के उनका दृट निर्णय था। वादमें गुरुदेवोंने मेरा भाषांतरका ध्यानपूर्वक अवलोकन किया और वह मुपाय और समुचित लगा तब उन्होंने प्रकाशित करनेकी अनुमति दी। वादमें यह ग्रन्थ भावनारके महोदय प्रेसमें शीघ्र छप गया। चित्र पूनाके लीथा प्रेसमें छप गये। फिर इसकी वाइण्डिंग आरम्भ हुई और सं० १६८५ में यह प्रकाशित हुआ। प्रकाशित होनेके पश्चात् १. समाजमें सर्वत्र अत्यधिक आदरको प्राप्त हुआ। अनेक आचार्यों तथा अनेक लोगोंने पूज्य गुरुदेवोक ५ पास धन्यवाद देते हुए अनुमोदना करते हुए अनेक पत्र लिखे। संग्रहणीग्रन्थकी प्रतियाँ कुष्ट वाणा ही समाप्त हो गई। मेरा अध्ययनकाल, विहार तथा अन्य कतिपय कारणोसे दूसरी आवृत्ति प्रकट करनेका संयोग शीघ्र नहीं बना। दुर्भाग्यसे द्वितीयावृत्तिके लिये कुछ वर्ष बीत गये। इसी बीच ''संग्रहणीके मेरे प्रथमावृत्तिके चित्र चित्रकारके द्वारा सुव्यवस्थित और सभी प्रकारसे थेष्ट बन' या करवानेकी इच्छा हुई। चित्रोंके कच्चे रेखाङ्कन पूर्वभूमिकाके रूप में तैयार करता गया और हमारे भक्तिशाली कुशल चित्रकार श्री रमणीक शाहने हमारे पास रहकर सभी चित्र बहुत ही उत्साह सन्दररूपमें बना दिये। वे चित्र एकसे चार कलरके थे। उस समय ओफसेट प्रिन्टका युग नही या अतः उन चित्रोंके ब्लोक बनवाये। ७०से अधिक लोक बम्बईमें मेरी उपस्थितिम तैयार करवाये और वे ब्लोक अभी-अभी सं० २०४४ में भावनगरके प्रेसमें भाई परसोत्तम द्वारा छपवाये। इस प्रकार गुजराती दूसरी आवृत्ति तैयार हुई। गुजराती अनुवाद किस किस गतिविधिसे हो सका इसका ज्ञान हिन्दी जनताको कुछ हो सके इसके लिये उपरोक्त वात लिखी है। दूसरी ओर बहुत समयसे मेरी इच्छा ‘हिन्दीभाषी जनता अधिकरसे अधिक इसका ज्ञान प्राप्त करे' ऐसी थी। जैन-अजैन विद्वान भी बहुत समयसे जैनधर्मके तत्त्व तथा पदार्थोकी कुछ झाँकी हो ऐसा ग्रन्थ हिन्दीमें प्रकाशित करनेके लिये मुझे सूचित भी करते ही रहने थे। क्योंकि हिन्दीभाषी प्रजा ज्ञानकी अल्परुचिवाली प्रजा है। जैनधर्मका ज्ञान बहुत कम पढ़ती है। व्यावहारिक शिक्षा भी बहुत कम प्राप्त करती है इससे ज्ञानकी रुचि मन्द होती है, अतः संग्रहणीग्रन्थ कि जिसमें विस्तारसे रसप्रद अनेक विषयोंकी जानकारी है, ऐसे विषयोंका ग्रन्थ यदि हिन्टीमें प्रकाशित छू किया जाए तो हिन्दीभाषी जनताके लिये वह बहुत उपयोगी हो जाएगा। मैंने सोचा कि संग्रहणी * ग्रन्थ पर्याप्त योग्य ग्रन्थ है कि जिसमें मोक्ष-स्वर्ग, मृत्यु, पाताल, नरक, मनुष्यलोक, भूगोल, खगोल, जीवसृष्टि आदि विषयोंका वर्णन दिया गया है। इस गुजराती अनुवादसे हिन्दी अनुवाद करवाया गया। इस अनुवादको पुनः देख लेनेका लाभ एक शिक्षकको दिया। प्रेसकॉपी तैयार हुई और उसे प्रेसमें
SR No.022874
Book TitlePrastavana Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherMuktikamal Jain Mohanmala
Publication Year2006
Total Pages850
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size28 MB
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