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________________ 5 और अध्यात्म शास्त्र के दिग्गज श्री यशोविजयजी महाराज विक्रम की १८ वीं सदी में हुए । है। न्यावागायजी का गर्गवास भोई में हुआ था और इन आचार्य विजययशोदेवमूरि की। जन्मस्थली भी डभोई है, अतः एक नाम राशि होने के कारण उनके प्रति अनन्य श्रद्रा होना । । स्वाभाविक है ! उन्हीं के पद-चिह्नों पर चलते हुए ये आचार्य भी अनेक विषयो के निष्णात । द बने। न्यायाचार्यजी द्वारा रचित समस्त ग्रन्थों का संकलन, संशोधन एवं प्रकाशन के प्रति ६ उमंग के साथ अभिरुचि थी। फलतः न्यायाचार्यजी द्वारा निमित्त एवं स्वलिखित ग्रन्थों के । पंग्रह, उनका सम्पादन और प्रकाशन करने में ये दिल से लगे रहे और न्यायाचार्यजी के, कई ग्रंथों का प्रकाशन भी किया जिनकी प्रस्तावनाएँ स्वयं यशोदेवसूरि ने लिखी और खुलकर भक्तिपूर्वक भावांजलि भी दी। चित्र एवं मूर्तिकला के माध्यम से जैन समाज को विशेष अवदान ताडपत्रीय चित्रों एवं प्राचीन कल्पसूत्र आदि के चित्र जैन चित्रकला के नाम से माने । जाते है, प्रसिद्ध हैं। ताडपत्रीय ग्रन्थोंमें जिनेश्वरों, आचार्यों एवं देवियों से सम्बन्धित स्फुट चित्र : प्राप्त होते हैं। सचित्र कल्पसूत्र में ७ चित्रों से लेकर १०० चित्रों तक पाये जाते हैं। शताब्दियों से दर्शनार्थ चौवीसी का भी निर्माण होता रहा। कई रंगों के आधार से और स्वर्ण की स्याही । को आधार बनाकर चित्र बनते रहे, किन्तु किसी भी तीर्थंकर से सम्बन्धित चित्रावली प्राप्त s नहीं होती। इस ओर आचार्यश्री का ध्यान गया। वे स्वयं रेखाचित्र निर्माण में कलापटु थे : ही, फलतः ख्यातिप्राप्त चित्रकारों का सहयोग लेकर विशेष चित्र भी अपनी सूझ-बूझ और निर्देशन में बनवाते रहे। संग्रहणीरत्नं इसका प्रमाण है ही, जिसमें ८० चित्र सम्मिलित किये गये। भगवान महावीर से संबंधित चित्रावली बनाने की ओर इनका ध्यान गया और वर्षों 8 से उच्च कलाकार की शोध करते रहे। सौभाग्यवश प्रसिद्धतम चित्रकार गोकुलदास कापडीया से इनका परिचय हुआ, जो कि स्व-कला से चित्र जगत् में प्रसिद्ध थे। दोनों का सहयोग मिला। आचार्यश्री के रेखा-चित्रों और निर्देशों को स्वीकार करते हुए समय-समय पर परिवर्तन करते हुए भगवान महावीर के जीवन से सम्बन्धित एक चित्रसम्पट तैयार हुआ। रंगों का है सम्मिश्रण भी आचार्यश्री के निर्देशनमें होता रहा। आज के युगमें और चित्रकला की दृष्टि में से सर्वश्रेष्ट निर्धारित होने पर ही 'तीर्थंकर भगवान श्री महावीर के ३५ चित्रों का सम्पुट' & ई० सन् १६७३ में प्रकाशित हुआ। इस सम्पुट के पीष्टे आचार्यश्री का दो युगों से जो अभिलापा थी, संकल्प था, वह सफलता के साथ पूर्ण हुआ। केवल चित्रों से सामान्य जनता, उसके हार्द-भावों को सहज भाव से हृदयंगम नहीं कर सकती, इसलिए चित्र के सम्मुख ही : गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में इन चित्रों का परिचय भी दिया गया है। इस अभूतपूर्व चित्रावला को देखकर न केवल जैन समाज ही अपितु प्रसिद्ध-अप्रसिद्ध चित्रकारों ने भी इसकी
SR No.022874
Book TitlePrastavana Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherMuktikamal Jain Mohanmala
Publication Year2006
Total Pages850
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size28 MB
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