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________________ मंजुषा को देखकर मेरी धारणा भ्रान्त सिद्ध हुई। व्याकरण शास्त्र के विद्वान् छोटालालजी के : पास व्युत्पत्ति शास्त्रका अध्ययन किया। इस अध्ययन को आगे बढ़ाते हुए परिभाषेन्दुशेखर, बालमनोरमा टीका, वैयाकरण भूषणसार, व्युत्पत्तिवाद, पतञ्जलि महाभाष्य, हैमकोश और, कादम्बरी आदि का भी गहनता के साथ अध्ययन किया। सामान्यतः जो शब्द साधनिका के द्वारा सिद्ध न हो शके, क्वचित् ही प्रयोग में आते हो, ऐसे शब्द उणादि पाट के ही माध्यम से सिद्ध हो सकते हैं, जो प्रौढ़ विद्वान ही कर शकता है। इस पुस्तकमें इस प्रकारके क्वचित् प्रयुक्त या अप्रयुक्त सैकड़ो शब्दों को उणादि के द्वारा निष्पन्न कर जो आपने अपना वैदुष्य प्रकट किया है, वह असाधारण है। इसी प्रकार न्यायाचार्य यशोविजयजी रचित काव्यप्रकाश की टीका के सम्पादन और भूमिका में भी जो ज्ञान का वैशा प्रकट हुआ है, वह अनुपम है। अनुसंधान ऋषिमण्डल यंत्र, पट्ट और पूजन के संबंध में जो ४०० वर्षों से परंपरा चली आ रही थी, उस परम्परा को अपनी अनुसंधान की दृष्टि से शुद्ध करने का जो सुदृट प्रयत्न किया, वह वास्तवमें श्लाघनीय था। अनेक प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों का उपयोग कर इन्होंने नवीन मार्ग दिखाया। मूल मंत्राक्षर कितने अक्षरों का है ? और वे कौन-कौन से हैं ? इस पर अपनी शोधपूर्ण दृष्टि से जो निर्णय कर सिद्धमंत्र को स्थापित किया और उन्होंने नव वीजाक्षरो और अष्टादश शुद्राक्षर के साथ २७ अक्षरों का निर्णय किया। ऋषिमण्डल के श्लोकों को आधार बनाकर “सान्तः समलंकृतः, अग्निज्वालासमाक्रान्तं, नादविन्दु स्वाहा, क्षिप, स्वस्ति, * कूटाक्षर, ॐ, ह्रीं, उम्, अर्हम्, साढ़े तीन रेखाएँ" आदि पर गहन विचार किया। यंत्रपटों के लिए कितने वलय होने चाहिए ? उन वलयों में किन-किन देवियों की स्थापना होनी, • चाहिए ? और पूजन विधि किस प्रकार की होनी चाहिए? आदि पर अत्यन्त गहनता से . विचार कर इसका एक स्वरूप स्थापित किया तथा इससे सम्बन्धित पुस्तक, यंत्र, पूजन: विधि आदि प्रकाशित भी किये। यह आवश्यक भी था, क्योंकि यह स्तोत्र मंत्र ‘सूरिमंत्र' । पर आधारित था ओर ऋपि अर्थात् २४ तीर्थंकरों की स्थापना होने से यह अत्यन्त महत्वपूर्ण था। इस पुस्तक के कई संस्करण भी निकल चुके हैं। इसी प्रकार नवपद यंत्र और पूजन के सम्बन्ध में भी परम्परा प्रचलित मंत्राक्षरों पर युक्तियुक्त विचार कर एक जैसा निर्दिष्ट स्वरूप स्थापित किया। स्वनिर्धारित यंत्र और विधियाँ है भी प्रकाशित की। इनके इन संशोधनों को परम्परावादियों ने भी युक्ति-संगत होने के कारण है स्वीकार भी किया। इसी प्रकार मंदिरों में मूलनायक की मूर्ति के ऊप' अतिशय-द्योतक जो तीन छत्र लगाये
SR No.022874
Book TitlePrastavana Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherMuktikamal Jain Mohanmala
Publication Year2006
Total Pages850
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size28 MB
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