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________________ में प्रतिभा उजागर हुई। इस ग्रन्थ का यह अनुवाद इतना प्रशस्त और युक्तिसंगत था कि जैन, है समाज के गौरव और जैन साहित्य के विशिष्ट अध्येता, जैन साधु-साध्वियों को अध्ययन करने । के में सिद्धहस्त श्रद्धेय कुँवरजी आनन्दजी ने अपने अन्तर्भावों को प्रकट करते हुए यह लिखा आपके गुरुदेवोंने आपके ज्ञान-विकास के प्रति जो ध्यान दिया है, उससे द्रव्यानुयाग और गणितानुयोग के ऊपर तथा प्राकृत, संस्कृत और गुजराती भाषा के ऊपर विशिष्ट व्युत्पन्न स्फूर्ति देखकर अत्यधिक आश्चर्य और आनन्द होता है। ऐसे मुनिश्री के लिए आप सव और 8 जैन संघ जितना भी गौरव प्रदान करें, वह कम है। मेरा वन्दन भिजवा दें। एक वात विशेष रूप से लिखनी चाहिए कि मैंने बहुत वांचन किया, विचार किया। और पिछले कुछ वर्षों से पूज्य साधु-साध्वियो को में पढ़ाता भी हूँ। मेरे पटन और पाटन : के वीचमें कितनी ही विषयों के सम्बन्ध में मुझे अनेक शंकाएँ थीं, उन शंकाओं का समाधान मुझे कहीं पढ़ने को नहीं मिला। अनेक विद्वानों से पूछने पर भी सन्तोष का उत्तर नहीं मिला। गले उतर जाए, ऐसा समाधान तो मुनिश्री के भाषान्तर से ही मुझे प्राप्त हुआ है। . इससे मुझे अभूतपूर्व आनन्द हो रहा है। मेरी तरफ से यह विनती है यह भाषान्तर पठनीय और सुपाच्य है। समस्त प्रकारसे आदर के योग्य है। अनुवाद भी विस्तृत हुआ है, विशद हुआ है। भाषा सरल, सीधी और समझाने की शैली भी सुन्दर है। आचार्यदेवों का आशीर्वाद यह इनके जीवन का सौभाग्य था कि प्रारम्भ से ही ३-३ सद्गुरु आचार्यो का सानिध्य मिला। द्रव्यानुयोग के विशिष्ट ज्ञाता आचार्य श्री विजयमोहनसूरिजी महाराज, प्रखर सिद्धान्तवेत्ता आचार्य श्री विजयप्रतापसूरिजी महाराज और गुरुवर आचार्य श्री विजयधर्मसूरिजी महाराज के क्रमशः प्रपौत्र, पौत्र और शिष्य होने पर भी इनके प्रति उक्त आचार्यों का अत्यन्त वात्सल्य भाव था अर्थात् यह उनके अन्यतम प्रिय शिष्य थे। जब ये लघु अवस्थामें ही संग्रहणीरत्न पर काम कर रहे थे, उस समय इन आचार्यों के श्रीमुख से और लिखित रूप में ये उद्गार "उम्मरमा वाल छतां बुद्धिमां अवाल, तत्त्व जिज्ञासु' इनकी योग्यता के सूचक और भविष्य को जागर ! करनेवाले अन्तर के शब्द थे। उक्त शब्दों को ही इन्होंने अपने जीवनम चरितार्थ भी किया। व्युत्पन्न विद्वान ____ मैं समझता था कि आचार्यश्री जैन चित्र-मूर्तिकला, जैन साहित्य और अनुसंधान के प्रोड़। * विद्वान है, संभव है वे शब्द-शास्त्र तलस्पर्शी विद्वान् न हो, किन्तु "उणादिपयोग यशस्विनी
SR No.022874
Book TitlePrastavana Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherMuktikamal Jain Mohanmala
Publication Year2006
Total Pages850
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size28 MB
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