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________________ क्षीण होने के साथ समाप्त हो जाती हैं। उनकी निर्जरा के लिए किसी तप-साधना की आवश्यकता नहीं होती। यह अवश्य है कि केवलज्ञानी केवलिसमुद्घात करके अन्य कर्मों की स्थिति को भी आयुष्य के समान कर लेता है। लेखक ने स्पष्ट शब्दों में लिखा हैं- 'निर्जरा तत्त्व में पाप कर्मो की ही निर्जरा इष्ट है, पुण्य कर्मों की नहीं। पुण्य कर्मों की समस्त प्रकृतियाँ पूर्ण रूपेण अघाती हैं। इनसे जीव के किसी भी गुण का अंशमात्र भी घात नहीं होता है। अपितु क्षपक श्रेणी की उत्कृष्ट साधना के समय तप से सत्ता में स्थित समस्त पुण्य प्रकृतियों का अनुभव बढ़कर उत्कृष्ट होता है तब ही केवलज्ञान होता है। पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग मुक्ति-प्राप्ति के पूर्व क्षण तक उत्कृष्ट ही रहता है। केवलि-समुद्घात, योग निरोध आदि किसी भी साधना से यह अनुभाग क्षीण नहीं होता है।" (पृष्ट-४) 'पुण्य कर्मों की निर्जरा दो ही प्रकार से हो सकती है- पुण्य कर्मों का उदय होने से उन्हें भोगकर अथवा पाप प्रवृत्ति में वृद्धि होने से। अहिंसा, संयम, तप आदि समस्त साधनाएँ दोषों को, पापों को त्यागने के लिए होती हैं। पापों के त्याग से पाप-कर्मों की ही निर्जरा होती है, पुण्य कर्मों की नहीं।" (पृष्ट-७) एक यह भ्रान्त धारणा प्रचलित है कि शुभ-भाव से कर्म क्षय नहीं होता, प्रत्युत कर्म बन्धन होता हैं। लोढ़ा साहब ने इस धारण पर पुस्तक के 'शुभ व शुद्ध भाव से कर्मक्षय होते हैं, लेख में प्रहार करते हुए यह प्रमाणित किया है कि शुभ व शुद्ध भावों से कर्मो का क्षय न माना जाये तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता। श्वेताम्बर परम्परा में शुभ योग को संवर कहा गया है। शुभ योग जहाँ आस्रवनिरोध का कारण है, वहाँ कर्म क्षय का भी हेतु है, क्योंकि तप-साधना में भावों की शुद्धता ही मुख्य है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के बिना तप में भी भावों की शुद्धता नहीं आती है और तप ही निर्जरा का प्रमुख साधन है। भावों का निरुपण करते हुए उन्हें पाँच प्रकार का प्रतिपादित किया गया है१. औपशमिक, २. क्षायिक, ३ क्षायोपशमिक, ४. औदयिक और ५. पारिणामिक। इनमें से औदयिक भावों से कर्मबन्ध होता है। औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भावों से मोक्ष होता है तथा पारिणामिक भाव बन्ध और मोक्ष दोनों में हेतु नहीं है। लेखक ने यह भली-भाँति प्रतिपादित किया है कि कषाय में कमी होना शुभ भाव है। शुभ भाव की उत्पत्ति कषाय के उदय से अथवा किसी अशुभ कर्मोदय से मानना आगम-विरुद्ध है। राग को प्रशस्त या शुभ मानना कर्म-सिद्धान्त या जैनागम से मेल नहीं खाता। वीतराग देव, गुरु, धर्म व गुणीजनों के प्रति जो प्रमोद भाव होता [148] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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