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________________ प्रायश्चित, २. विनय. ३. वैयावृत्त्य, ४ स्वाध्याय, ५. ध्यान और ६. व्युत्सर्ग। ये सभी प्रकार के तप पूर्वबद्ध कर्मों को निर्जरित करने में महत्त्वपूर्ण साधन हैं तथा इनसे सकाम निर्जरा या अविपाक निर्जरा फलित होती है। पुस्तक में तप के इन सभी भेदों का कर्म-निर्जरा के परिप्रेक्ष्य में सूक्ष्म विवेचन उपलब्ध है। बाह्य तप में अनशन (उपवास) पर पृथक अध्याय है। आभ्यन्तर तप में विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग की भी विशेष अध्यायों में चर्चा की गई है। पुस्तक-लेखन के पीछे लेखक की गहन अन्तर्दृष्टि छुपी हुई है। निर्जरा तत्त्व पर अभी तक कोई स्वतन्त्र प्रस्तक देखने में नहीं आई। इसके पूर्व तत्त्व ज्ञान को लेकर लोढ़ा साहब की तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं- १. जीव-अजीव तत्त्व, २. पुण्य-पाप तत्त्व, ३. आस्रव-संवर तत्त्व। उसी क्रम में यह 'निर्जरा तत्त्व' पुस्तक भी लेखक के गहन चिन्तन मनन और आध्यात्मिक दृष्टि का परिचय देती है। प्रायः यह माना जाता है कि मुक्ति की प्राप्ति के लिए पुण्य और पाप दोनों प्रकार के कर्मों की निर्जरा आवश्यक है। परन्तु इस मान्यता पर प्रहार करते हुए लेखक ने आगमप्रमाण के अधार पर यह भली-भांति सिद्ध किया है कि निर्जरा तत्त्व में पाप कर्मों की निर्जरा ही इष्ट है, पुण्य कर्मों की नहीं। समस्त आगम-वाक्य इसी तथ्य को पुष्ट करते हैं कि तप से पाप कर्मों की ही निर्जरा होती। उदाहरण के लिएतवसा धुणइ पुराणपावगं जुत्तो सया तवसमाहिए। (दशवैकालिक सूत्र ९.४४) धुणन्ति पावाइं पुरे कडाइं। (दशवैकालिक सूत्र ३.३८) इसी प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र के तीसवें अध्ययन में भी पाप कर्मों का क्षय करने की प्रेरणा की गई है जहा उ पावगं कम्मं रागदोससमज्जियं। खवेइ तवसा भिक्खू, तमेगग्गमणो सुण।।-उत्तरा. ३०१ लेखक ने अपने इस मन्तव्य की सिद्धि प्राक्कथन में एवं पुस्तक के द्वितीय लेख में की है। उनके मन्तव्य में बहुत बड़ा बल है। क्योंकि प्रारम्भ में क्षपकश्रेणि में आरूढ होने पर मोह, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामक पाप-कर्मों का ही क्षय किया जाता है। किसी भी पुण्य कर्म का क्षय नहीं किया जाता है। केवलज्ञान होने के पश्चात् पुण्य कर्मों की बाहर प्रकृतियाँ शेष रहती हैं, जो आयु निर्जरा तत्त्व [147]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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