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________________ ७३-- समावयन्ता वषणाभिघाया, करणं गया दुम्मणियं जणन्ति । धम्मु त्ति किच्चा परमग्गसूरे, जिइन्दिए जो सहइ स पुज्जो ॥ (दश० अ० उ० ३-८) विरोधियों की ओर से पड़ने वाली दुर्वचन की चोटें कानों में पहुँचकर बड़ी मर्मान्तिक पीड़ा पैदा करती हैं, परन्तु जो क्षमाशूर जितेन्द्रिय पुरुष उन चोटों को अपना धर्म जान कर ममभाव से सहन कर लेता है, वही पूज्य है । ७४-- गुणेहि साहू अमुणेहिऽसाहू, गिण्हाहि साहू गुण मुन्चऽसाहू । बियाणिया अप्षगमप्पएणं, जो रागदोसेहिं समो स पुज्जो ॥ ( दश० अ० ६ ० ३-११) गुणों से साधु होता है और अगुणों से असाधु । अतः हे मुमुक्षु ! सद्गुणों को ग्रहण कर और दुगुणों को छोड़ । जो साधक अपनी आत्मा द्वारा अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचान कर राग और द्वेष दोनों में समभाव रखता है, वही पूज्य है । ७५-- जायरूवं जहामठे, निद्धन्तमल-पावगं । राग---दोस--भयाईयं, तं वर्ष बूम माहणं ॥ ( उत्तरा० अ० २५-२१)
SR No.022854
Book TitleDipmala Aur Bhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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