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________________ ७०-- सरी माहु नाव त्ति, जीवो कुच्चइ नावित्रो । संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरन्ति महेसिणो ॥ ( उत्तरा० अ० २३-७३ ) शरीर को नाव कहा है, जीव को नाविक कहा जाता है, है, और संसार को समुद्र बतलाया है, इसी संसार-समुद्र को महषिजन पार करते हैं । ७१- नाणेण जाणइ भावे, दसणेणं य सद्दहे । चरिचेण निगराहाइ, तवेण परिसुज्झइ ॥८॥ (उत्तरा० अ० २०-३५) मुमुक्षु आत्मा ज्ञान से जीवारिक पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धान करता है, चारित्र से भोग-वासनाओं का निग्रह करता है, और तप से कर्म-मल रहित होकर पूर्णतया शुद्ध हो जाता है। ७२-- सक्का सहेउ आसाइ कंटया, अोमया उच्छहया नरेण । अणासए जो उ सहेज्ज कंटए, वईमए करणसरे स पुज्जो ॥ (दश० अ० ६ उ०३-६) संसार में लोभी मनुष्य के द्वारा किसी-किसी विश्लेष श्राशा की पूर्ति के लिए लोह-कंटक भी सहन कर लिये जाते हैं, परन्तु जो बिना किसी आशा-तृष्णा के कानों को तीर के समान चुभने वाले दुवचम रूपी कंटकों को सहन करता है, वही पूज्य
SR No.022854
Book TitleDipmala Aur Bhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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