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________________ जो अग्नि में डाल कर शुद्ध किये हुए और कसौटी पर कसे हुए सोने के समान निर्मल है, जो राग द्वेष तथा भय से रहित है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । ७६-- कोहा वा जइ वा हासा, लोहा वा जइ वा भया । मुसं न वयइ जो उ, तं वयं बूम माहणं ॥ . (उत्तरा० अ० २५-२४) जो क्रोध से, हास्य से, लोभ अथवा भय से, किसी भी मलिन संकल्प से असत्य नहीं बोलता, उसे हम ब्राह्मण कहते ७७-- न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभयो । न मुणी रगणवासेणं, कुसचीरेण ण तावसो ॥ (उत्तरा० अ० २५-३१) सिर मुडा लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता. 'श्रोम्' का जाप कर लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, निर्जन वन में रहने मात्र से कोई मुनि नहीं होता, और न कुशा के बने वस्त्र पहन लेने मात्र से कोई तपस्वी ही हो सकता है । ७८-- समयाए समणो होइ, बभचेरेण वभयो । नाणेण मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ॥ (उ० अ० २५-३२) माता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है। मामले पनि होता है, और तप से तपस्वी बना जाता है। ७. काणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खतिभा । इसो। कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥ ( उत्तरा०, अ० २५-३३)
SR No.022854
Book TitleDipmala Aur Bhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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