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________________ जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता * 89 मेजर जनरल फरलांग के मतानुसार “आर्य लोगों के गंगा और सरस्वती तक पहुँचने के बहुत पूर्व अर्थात् ईस्वी सन् से आठ सौ-नौ सौ वर्ष पहले होने वाले तीर्थंकर पार्श्वनाथ के पूर्व बाईस तीर्थंकरों ने जैनियों को उपदेश दिया था। अन्त में वह इस परिणाम पर पहुँचते हैं, कि जैन धर्म के प्रारम्भ को जानना असंभव है।" डॉ. एन. गिरनाट जैन धर्म के स्वरूप के बारे में लिखते हैं, कि “जैन धर्म में मनुष्य की उन्नति के लिए सदाचार को अधिक महत्त्व दिया गया है। जैन धर्म अधिक मौलिक, स्वतंत्र तथा सुव्यवस्थित है। ब्राह्मण धर्म की अपेक्षा यह अधिक सरल, सम्पन्न एवं विविधतापूर्ण है और यह बौद्ध धर्म की तरह शून्यवादी नहीं है।'' इस प्रकार गहन अध्ययनशील विद्वानों के द्वारा जैन धर्म की प्राचीनता और व्यापकता को स्वीकार किया जाना भी अपने आप में एक प्रमाण पुरस्सर वक्तव्य व्यक्त करता है, जैन धर्म व संस्कृति की प्राचीनता का। अतः यहाँ कहना चाहूँगी, कि जैन धर्म न केवल प्राचीन है वरन् वह विश्व के अनेक दूरस्थ भू-भागों में प्रसारित एवं पूजित था। इसका विवेचन हमें कतिपय जैन व्यापारियों द्वारा व्यापारिक संबंधों और समुद्री यात्राओं के वर्णन में ही मिल पाता है। आज से तीन चार शताब्दियों पूर्व के कतिपय हस्तलिखित ग्रंथों में हमें ऐसे कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र मिलते हैं, कि भारत से बाहर भी अफगानिस्तान, ईरान, इराक, टर्की आदि देशों तथा सोवियत रुस के अजोब सागर से ओब की खाड़ी से भी उत्तर तक तथा लाटविया से अल्लाई के पश्चिमी छोर तक किसी काल में जैन धर्म का व्यापक प्रसार था। इन प्रदेशों में अनेक जैन मन्दिरों, जैन तीर्थंकरों की विशाल मूर्तियों की विद्यमानता का भी इनमें उल्लेख है। कतिपय व्यापारियों और पर्यटकों ने जो इसी दो तीन शताब्दियों में हुए है, इन विवरणों में यह दावा किया है, कि वे स्वयं अनेक कष्ट सहन करके इन स्थानों की यात्रा करके आये हैं। ऐसे विवरणों में सर्वप्रथम विवरण बुलाकीदास खत्री का है, जो सं. 1682 (सन् 1625 ई.) में घोड़ों का काफिला लेकर अपने साथियों के साथ उत्तरापथ के नगरों की यात्रा पर निकला था। यह काफिला विभिन्न नगरों एवं तीर्थों की यात्रा करता हुआ नौ वर्ष बाद लौटकर अपने घर आगरा पहुँचा। इस यात्रा में उसने आगरा से यात्रा प्रारम्भ करके लाहौर, मुल्तान, कंधार, इस्तफान (इसकानगर), खुरासान, इस्तंबूल (आसतंबोल), बब्बर, बब्बरकूल या बाबर तथा तारातंबोल नगरों को देखा, जिनमे से कतिपय नगरों का उन्होंने सविस्तार वर्णन भी किया है। इन नगरों के मध्य की पारस्परिक दूरी उन्होंने क्रमशः 300, 150, 300, 800, 600, 1200, 500 और 700 कोस दी है। विभिन्न हस्तलिखित ग्रंथों में इस विवरण के अनेक संस्करण मिलते हैं, जिनमें यत्र तत्र थोड़ा बहुत अंतर भी है। एक संस्करण में काबुल और परेसमान नगरों का भी यात्रा मार्ग में उल्लेख है। स्व. मुनि कान्तिसागर जी श्री सागरमल जी
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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