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________________ 88 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन परन्तु जैसा, कि बारंबार बना करता है, धर्म के साथ गाढ सम्बन्ध ही, न कि पुस्तकों द्वारा प्राप्त किए बाहरी ज्ञान, उसकी विशिष्टताओं का दिग्दर्शन कराता है और समष्टि में अत्यंत अनुकूल वातावरण वही उत्पन्न करता है। 387 डॉ. हॉपकिंस के विरोध में श्री बेल्वल्कर लिखते हैं, “अनेक पदार्थों की भाँति ही जिसे उसके कथनानुसार जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है, वह जैनधर्म दो हजार से अधिक वर्षों से भी जीवित है, इतना ही नहीं अपितु उसने साधुओं एवं गृहस्थों में अनेक उत्तम कोटी के पुरुष भी उत्पन्न किए हैं और अत्यन्त श्रद्धालु और सत्य मार्ग शोधक अनेक उपासकों और भक्तों को मार्ग दर्शन कराकर वास्तविक शांति भी प्रदान की है।"382 इसी प्रकार श्रीमति स्टीवेन्सन यद्यपि जैन धर्म के अनेक सदियों तक राजधर्म होने से अनभिज्ञ है, फिर भी वे उसके व्यापक प्रभाव को स्वीकार करती है। उनका मत है, कि "यद्यपि जैन धर्म किसी भी रीति से कहीं भी राजधर्म नहीं है, फिर भी आज जो प्रभाव उसका देखा जाता है, वह भारी है। उसके साहूकारों और सर्राफों का धन-वैभव, ऋणदाताओं व साहूकारों का सर्वोपरि महान् धर्म होने की उसकी स्थिति से इसका राजकाज पर प्रभाव, विशेष रूप से देशी राज्यों में सदा ही रहा है। यदि कोई इसके प्रभाव में शंका करता हो, तो उसे देशी राज्यों की ओर से प्रकाशित जैनों के पवित्र धार्मिक दिवसों में जीव हिंसा बंद रखने संबंधी आज्ञापत्रों की संख्या भर देख लेना चाहिये। ३४३ डॉ. हर्मन जैकॉबी तथा डॉ. व्हलर जैसे विद्वानों ने ही सर्वप्रथम जैन धर्म को प्राचीन स्वतन्त्र धर्म के रूप में प्रतिष्ठित करके जैन धर्म का सतही अध्ययन करने वाले विचारकों का भ्रम तोड़ा। डॉ जैकोबी के 'श्री भद्रबाहु के कल्पसूत्र की प्रस्तावना' और 'श्री महावीर तथा उनके पुरोगामी अनुक्रम से ई. सन् 1879 और 1880 में प्रकाशित विद्वतापूर्ण दो लेख और सन् 1887 में पढ़ा गया डॉ. व्हूलर का 'जैनों की भारतीय शाखा' लेख ही जैन धर्म के शास्त्रीय या बुद्धिगम्य और विस्तृत विवरण देने वाले सर्वप्रथम लेख थे। इनके फलस्वरूप अनेक यूरोपीय विद्वानों का ध्यान जैन धर्म की ओर आकर्षित हुआ और आज पुनः इसके प्राचीन गौरव को स्वीकार किया जाने लगा है। हर्मन जैकोबी के अनुसार, जैन धर्म एक मौलिक पद्धति है, जो सभी धर्मों से नितान्त भिन्न है और स्वतन्त्र है, इसलिए प्राचीन भारत के दार्शनिक विचार और धार्मिक अध्ययन के लिए इसका अत्यन्त महत्त्व है। इसी प्रकार ओ. पेर्टोल्ड के अनुसार, "जैन धर्म एक बहुत पुराना धर्म है, विद्वान् स्नातक यह बहुत कठिनाई से अनुमान कर सकते हैं, कि इसका मूल अत्यन्त सुदूर काल में भारत की प्रागार्थ जाति के समय तक पहुँचता है।'
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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