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________________ 486 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन धर्म के लिए द्वादश व्रतों की प्ररूपणा की । इसीलिए भगवान ऋषभदेवजी को धर्म का मुख कहा है। इस प्रकार मानव की भौतिक व आध्यात्मिक दोनों ही पक्षों का प्रारम्भिक उन्नयन भगवान ऋषभदेवजी ने ही किया । उन्होंने जहाँ एक ओर वन सभ्यता में जीने वाले मानव को नगर सभ्यता का ज्ञान दिया, वहीं उन्हें भौतिक साधनों की नश्वरता का ज्ञान देकर आत्म-साधना हेतु भी उद्बोधित किया। उनके बताए आत्म-साधना के मार्ग पर चलने वाले अनगिनत पथिकों ने मोक्ष सुख को प्राप्त किया। दूसरी ओर नगर-सभ्यता के निर्माण में जुटा मानव धीरे-धीरे समृद्धि का स्वामी हो गया और संस्कृति का वाहक भी। इस विकास क्रम से प्रतीत होता है, कि ऋषभदेव जी की प्रेरणा और तत्कालीन मानव का पुरुषार्थ ही सिंधु सभ्यता (जो प्राचीनतम नगर सभ्यता थी) के निर्माण की आधारशिला रहा होगा। भगवान महावीर के जीवन दर्शन की पूर्व परम्परा में ऋषभदेव जी के अतिरिक्त बीच के 22 तीर्थंकरों के चिन्तन और साधना का भी महत्वपूर्ण योग रहा है। ऋषभदेव जी के बाद के तीर्थंकर भी मानव संस्कृति के विभिन्न कालों से जुड़े हुए हैं। तीसरे तीर्थंकर संभवनाथ जी का काल सिंधु सभ्यता के विकास का काल माना जा सकता है। डॉ. ज्योति प्रसाद जैन ने अपने ग्रन्थ 'भारतीय इतिहास- एक दृष्टि' में इस प्रकार की कुछ समानताओं का संकेत किया है। - सिन्धु घाटी में प्राप्त अवशेषों के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है, कि उसके पुरस्कर्ता प्राचीन विद्याधर जाति के लोग थे । उनके धार्मिक मार्गदर्शक मध्य-प्रदेश के वे मानवंशी मूल आर्य थे, जो श्रमण-संस्कृति के उपासक थे। संभवनाथ का विशेष चिन्ह अश्व है और सिन्धु देश चिरकाल तक अपने सैन्धव अश्वों के लिए प्रसिद्ध रहा है। मौर्यकाल तक सिंधु में एक सम्भूतक जनपद और सांभव (संबूज) जाति के लोग विद्यमान थे, जो बहुत सम्भव है, कि सम्भवनाथ तीर्थंकर की परम्परा से सम्बन्धित रहे हों । इसी प्रकार सिन्धु सभ्यता में नागफण के छत्र से युक्त कलाकृतियाँ भी प्राप्त हुई हैं, जो सातवें तीर्थंकर सुपार्श्व की हो सकती हैं। इनका चिन्ह स्वास्तिक है और तत्कालीन सिन्धु घाटी में स्वास्तिक एक अत्यन्त लोकप्रिय चिन्ह रहा है। इस प्रकार जैन इतिहास में चौबीस तीर्थंकरों की परम्परा मिथ्या नहीं है। उसका अपना ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक महत्व है । लेकिन अनेक महत्वपूर्ण तथ्य काल के गर्त में दबे पड़े हैं। मानव संस्कृति के साथ-साथ श्रमण संस्कृति के इस तालमेल के कारण भारतीय महापुरुषों का सम्बन्ध एक दूसरे से बना रहा है। चाहे वे श्रमण परम्परा के हों, अथवा वैदिक परम्परा के । बीसवें तीर्थंकर मुनि सुव्रत स्वामी का समय रामायण
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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