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________________ 478*जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन 118. उत्तमधिइसंघयणा पुव्वविदोऽतिसइणो सयाकालं । जिणकप्पियाविकप्पं कयपरिकम्मा पवज्जंति ॥ - विशेषावश्यक भाष्य, भाग 2, गा० 2591 119. ते जइ जिणवयणाओ पवज्जसि, पवज्जतोस छिन्नोत्ति । अत्थित्तिकहं पमाणं कहवुच्छिन्तो त्ति न पमाणे? विशेषावश्यक भाष्य, गा० 2592, संजयतिय- केवलि-सिज्झणाय जंबुम्मि बुच्छिण्णा । विशेषावश्यक भाष्य, गा० 2593 120. अच्चेलवकुद्देसियसेज्जाहरायचपिंड किदियम्मं । वद जेट्ट पडिक्कमणं मासं पज्जो समणकप्पो ॥ मूलाचार, समयसाराधिकार, सू० 911 121. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाई पंच वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्ता एवा, तंजहा 1. जंगिए, 2. भंगिए, 3. साणए, 4. पोत्तए, 5. तिरीडपट्टे नामं पंचमे । वृहत्कल्पसूत्र, उ० 2, सू० 29 122. अच्चेलक्कं लोचो वोसट्टसरीरदा य पडिलिहणं । ऐसो हु लिंगकप्पो चदुव्विधो होदि णायव्वो । मूलाचार, वट्केर, गा० 910, समयसार 123. उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसिरुजायाञ्च निः प्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः संलेखनामार्याः ॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचार - समन्तभद्र, गा० 122 124. i) जीवियं नाभिकंखेज्जा, मरणं नो वि पत्थए । दुहओ विन सज्जिज्जा, जीविए मरणे तहा ॥ आचारांगसूत्र, अनु॰ अमोलक ऋषि श्रु० स्कं० 1 अ० 8, उ० 8, गा० 4 ii) उपासक दशांक-अभयदेवसूरि वृत्ति - गा० 1, 6 पृष्ठ 18 125. कल्पसूत्र 1/1 126. देशयमघ्नकषायक्षयोपशमतारतम्यवशतः स्यात् । दर्शनिकाद्येकादशावशो नैष्ठिकः सुलेश्यतरः ॥ सागारधर्मामृत, पं० आशाधर, 3/1 127. अणुव्रतोगारी। 15 दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिक पोषधोपवासोपभोग परिभोग परिमाणा तिथि संविभाग व्रत सम्पन्नश्च ॥ 16 मारणान्तिकी संलेखनां जोषिता ॥17 - तत्त्वार्थ सूत्र, उमास्वाति, 7/15-17 128. मद्यमांसमधु त्यागैः सहाणुव्रतपंचकम् । अष्टौमूलगुणानाहुर्गहिणां श्रमणोत्तमाः॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचार, समन्तभद्र, 3 / 20 129. पंचवणुव्वयाइं गुणव्वयाइं हवंति तहतिण्णि सिक्खावय चत्तारि य संजमचरणं च सायारं ॥ चारित्र पाहुड, कुन्दकुन्दाचार्य, गा० 23 130. पंचाणुव्वया पण्णत्ता, तंजहा - थुलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, थुलाओ मुसावायाओ वेरमणं, थूलाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सदारसंतोसे, इच्छापरिमाणे ॥ स्थानांगसूत्र, श्री सुधर्मास्वामी, पंचमस्थान, 1/2 131. थूलगं पाणावाइयं पच्चक्खाइ, जावज्जीवाए, दुविहं, तिविहेणं, नकरेमि न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा । उपासकदशांग, सुधर्मास्वामी, 1/13 132. तंजहा - बंधे, वहे, छविच्छेए, अइभरे, भत्त पाण विच्छेए। वही, 1/45 133. थूलगं मुसावायं पच्चक्खाइ, जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं नकरेमि न कारवेमि, मणसावयसा कायसा ॥ वही, 1/14
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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