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________________ तत्त्वमीमांसा 403 की उपासना निरन्तर करनी चाहिये, जिससे सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हो सके। सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति आगम के सेवन, युक्ति के अवलम्बन, परम्परा गुरु के उपदेश एवं आत्मा के अनुभव से होती है तथा सम्यग्ज्ञान के द्वारा जाना गया वस्तु का अनेकात्मक सम्यक् स्वरूप स्यादवाद शैली में अभिव्यक्त होता है ।' जीव के चारित्र में सम्यक्त्व तभी आ सकता है, जबकि वह सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान को प्राप्त कर लेता है। आत्म तत्व के ज्ञान रूप अन्तरंग में होने वाला परमबोध ही सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्चारित्र : सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान सम्यग्चारित्र के पूर्व सोपान है तथा सम्यग्चारित्र में ही इनकी सार्थकता है। मोह, राग-द्वेष आदि विकारी परिणामों से रहितं आत्मा का परिणाम ही साम्यभाव है और वही सम्यग्चारित्र है । चारित्र के दो भेद किए गए हैं- सम्यक्वाचारण चारित्र और संयमाचरण चारित्र। मन, वचन, काय से शंकादि दोषों को दूर कर निःशंकादि गुणों सहित ज्ञान युक्त आचरण करने वाले का सम्यक्वाचरण चारित्र होता है । संयमाचरण चारित्र सम्यक्त्वाचरण चारित्र पूर्वक ही होता है । संयमाचरण चारित्र दो प्रकार का कहा गया है- सागार और अनागार । परिग्रह सहित श्रावक सागार चारित्र का धारक होता है । वह श्रावक पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इस प्रकार बारह व्रतों का धारक होता है। अपरिग्रही मुनि के अनागार चारित्र होता है। मुनि के पाँच इन्द्रियों का संवर, पाँच महाव्रत, पाँच व्रतों की पच्चीस क्रियाएँ, पांच समिति और तीन गुप्ति के सद्भाव होने पर अनागार संयमाचरण होता है। यहाँ चारित्र का अर्थ केवल बाह्य क्रियाएँ ही नहीं है। बाह्य क्रियाओं का आचरण सम्यक्त्वरहित तो अनन्तकाल से और अनन्त प्रकार से किया गया, लेकिन उससे लक्ष्य की पूर्ति नहीं होती । आध्यात्मसाधना में सम्यक्त्वयुक्त बाह्य क्रियाएँ यथावसर उपयोगी एवं सहायक तो होती हैं, किन्तु वही सब कुछ नहीं है । बाह्य क्रियाओं में उपयोगरहित आत्मा का चारित्र द्रव्य चरित्र कहा गया है और उपयोग सहित स्वरूप में रमणता के साथ भाव चारित्र कहा गया है। जीवन के विकास के लिए द्रव्य और भाव दोनों की आवश्यकता होती है। लेकिन मोक्ष के लिए भाव ही अपरिहार्य है। यदि भाव है, तो द्रव्य मूल्यवान होता है, किन्तु भावशून्य द्रव्य का विशेष महत्व नहीं है। इसी प्रकार द्रव्य के अभाव में केवल भाव भी उतना महत्वपूर्ण नहीं रह जाता। अर्थात् चारित्र सम्यक्त्वयुक्त ही मोक्ष तक ले जाता है । चारित्र सम्यक् हो इसके लिए सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान का होना आवश्यक है । इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र रूप रत्नत्रय सम्मिलित रूप से ही मोक्ष को प्रतिफलित कर सकते हैं। तीनों को संयुक्त रूप से धारण करने वाला जीव ही निज आत्मा की प्राप्ति रूप मोक्ष को प्राप्त करता है। लेकिन सम्यग्दर्शन
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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