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________________ 402 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन हुआ आत्मा का समभाव ही सम्यग्चारित्र है। वस्तुतः रत्नत्रय आत्मा की ही विविध अवस्थाएँ हैं। सम्यग्दर्शन: आत्म स्वरूप की प्रतीति, आत्मस्वरूप का विश्वास और आत्म स्वरूप, वीतराग एवं वीतराग-प्ररूपित तत्वों पर सच्ची श्रद्धा एवं दृढ़ विश्वास होना ही सम्यग्दर्शन है। मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषाय के अभाव में ही सम्यग्दर्शन सम्भव है। जड़ और चेतन में, स्व और पर में, आत्मा और पुद्गल में भेद विज्ञान करना आदि सम्यग्दर्शन का कार्य है। जीव और अजीव द्रव्य तत्व हैं और शेष सभी पर्याय तत्व हैं। पर द्रव्यों और पर्यायों से भिन्न निज आत्मा ही परम उपादेय तत्व है। निज आत्मा को छोड़कर शेष सभी तत्व मात्र ज्ञेय ही हैं। वे न तो हेय हैं न ही उपादेय ही वरन् मात्र जानने योग्य ही हैं। जो द्रव्य-गुण-पर्याय से अपनी आत्मा को जानता है, उसका दर्शन मोह नष्ट हो जाता है और सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है। मोक्षमार्ग में सर्व प्रथम स्थान सम्यग्दर्शन को ही दिया गया है, क्योंकि सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान व चारित्र में सम्यक्त्व असम्भव है। सम्यक्त्व के अभाव में ज्ञान व चारित्र मोक्ष के मार्ग नहीं बन सकते। सम्यग्ज्ञान : सम्यग्दर्शन युक्त ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। यहाँ सम्यक् का अर्थ लोक प्रचलित सत्य नहीं है, अपितु आत्मानुभूति से प्राप्त सम्यक्त्व की उपस्थिति से है। सम्यक्त्व युक्त सम्यग्ज्ञान है। इसके विपरीत सम्यक्त्व रहित संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय युक्त ज्ञान मिथ्याज्ञान होता है। ज्ञान पांच प्रकार का कहा गया है- मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ज्ञान। इनमें मनः पर्यय और केवल ज्ञान पूर्ण रूप से अन्तरिम रूप से आत्मा में प्रकट होते हैं, अतः ये दोनों सम्यग्ज्ञान ही होते हैं। मति, श्रुत तथा अवधिज्ञान बाह्य कारण जन्य होने के कारण सम्यक् भी हो सकते हैं तथा मिथ्या भी हो सकते हैं। अतः विशुद्ध रूप से सम्यग्ज्ञान दो ही है- मनः पर्यय और केवल ज्ञान। ___मनः पर्यय ज्ञान वह ज्ञान है, जिसके द्वारा दूसरे जीवों के मन की बात का सही सही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। केवलज्ञान अतीन्द्रिय एवं साक्षात् ज्ञान है, जिसके द्वारा मूर्त, अमूर्त, चेतन-अचेतन द्रव्यों का स्व का तथा समस्त का युगपत ज्ञान प्राप्त होता है। केवलज्ञान पूर्ण रूप से सम्यक्त्वयुक्त होता है, जिसमें सभी पदार्थों का अनेकान्तिक ज्ञान युगपत रूप से प्राप्त होता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ भेद-विज्ञान सम्यग्ज्ञान का जनक है। नव-पदार्थों का सम्यक् अवबोध, जीव-अजीव का भेद-विज्ञान पूर्वक ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्ज्ञान में परद्रव्यों को जानना इतना महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितना कि आत्मतत्व का। सम्यग्ज्ञान का मूल ज्ञेय तो पर से विभक्त तथा स्व से अविभक्त आत्मा ही है। जब तक ज्ञान परभावों से छूटकर आत्मा में न लग जावे, तब तक भेद-विज्ञान
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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