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________________ 388 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन संस्थान, 79. सादि संस्थान, 80. वामन संस्थान, 81. कुब्ज संस्थान और 82. हुण्ड संस्थान । उपर्युक्त बयासी प्रकार से पाप के फल को भोगना पड़ता हैं I यहाँ एक शंका हो सकती है, कि पुण्य की प्रकृतियाँ 42 और पाप की प्रकृतियाँ 82 बताई है। दोनों मिलाकर 124 होती हैं, जबकि कर्मबंध योग्य प्रकतियाँ 120 ही बताई गई है। इसका समाधान यह है, कि वर्ण, गंध, रस व स्पर्श ये चार प्रकृतियाँ बंधाधिकार में सामान्य रूप से बतायी गई हैं। लेकिन पुण्य प्रकृतियों में शुभ रूप से तथा पाप प्रकृतियों में अशुभ रूप से इनका पृथक् पृथक् रूप से वर्णन किया गया है। तात्पर्य यह है, कि बंध तो शुभाशुभ में एक का ही होता है। या तो शुभवर्णादि का होता है या अशुभ का । इसलिए बंध योग्य प्रकृतियों में चार प्रकृतियों का ही ग्रहण किया है, आठ का नहीं । अतएव बंध योग्य प्रकृतियाँ 120 ही है। पाप प्रकृतियों को जानकर इनका त्याग करना चाहिये । पाप तत्त्व हेय हैं। इसके परिणाम अति कटु होते हैं । अतः आत्म कल्याण के लिए जीव को सदैव पाप प्रकृतियों से बचना चाहिये । 5. आस्रव : जिसके द्वारा कर्म आत्मा में प्रवेश करते हैं, वह आस्रव है अर्थात् कर्मबन्ध के हेतु आस्रव । आस्रव के द्वार पाँच कहे गए हैं 1. मिथ्यात्व, 2. अविरति, 3. प्रमाद, 4. कषाय व 5. योग। ये पाँच बन्ध के कारण हैं, अतः इन्हें आस्रव - प्रत्यय भी कहते हैं । जीव में पदार्थों की यथार्थता के प्रति श्रद्धान नहीं होना मिथ्यादर्शन है। हिंसादि पापों के त्याग रूप व्रत का अभाव अविरति है । धर्म के प्रति अश्रद्धा के कारण धर्माचरण आलस्य प्रमाद है। क्रोध, मान, माया तथा लोभ आत्मा को दुःख देने के कारण कषाय कहे गये हैं ।" मन, वचन तथा काया की प्रवृत्ति योग है।' आत्मा प्रतिक्षण मिथ्यादर्शनादि के द्वारा कर्म का आकर्षण करता रहता है । आस्रव दो प्रकार से होता है भावास्रव तथा द्रव्यास्रव । जिन भावों से कर्मों का आस्रव होता है, उन्हें भावास्रव कहते हैं और कर्मद्रव्य का आना द्रव्यास्रव कहलाता है। पुद्गलों में कर्मत्व पर्याय का विकास होना भी द्रव्यास्रव कहा जाता है। आत्मप्रदेशों तक उनका आना भी द्रव्यास्रव है । यद्यपि इन्हीं मिथ्यात्व आदि भावों को भावबन्ध कहा है, परन्तु प्रथम क्षणभावी ये भाव चूँकि कर्मों को खींचने की साक्षात् कारणभूत योग क्रिया में निमित्त होते हैं, अतः भावास्रव जैसा तीव्र, मन्द और मध्यम होता है, तज्जन्य आत्मप्रदेशों का परिस्पन्द अर्थात् योग क्रिया से कर्म भी वैसे ही आते हैं और आत्म प्रदेशों से बन्धते हैं । - मिथ्यात्वादि पुद्गल परिणामों में ज्ञानावरणादि कर्मों के आस्रवण का जो निमित्त है, उसका भी निमित्त कारण राग-द्वेष- मोह आदि जीव के अज्ञानमय भाव है। अतः पुद्गल परिणामों के आस्रव के निमित्त भूत होने से रागादि भाव ही निश्चय से आव
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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