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________________ तत्त्व मीमांसा * 387 किया गया है। आगमानुसार पुण्य और पाप दोनों स्वतंत्र तत्त्व है, क्योंकि दोनों के फल भिन्नभिन्न ही होते हैं। पुण्य का फल सुख है और पाप का फल दुःख है। ये दोनों भिन्न फल वाले हैं, अतएव ये दोनों पृथक्-पृथक् तत्त्व हैं। यह चतुर्थ विकल्प ही यथार्थ प्रत्येक प्राणी द्वारा अर्जित पाप भिन्न प्रकार का होने से पाप के अनन्त भेद हो सकते हैं। फिर भी पाप के अठारह भेदों के नाम इस प्रकार हैं। पाप के भेदः 1. प्राणातिपात, 2. मृषावाद, 3. अदत्तादान, 4. मैथुन, 5. परिग्रह, 6. क्रोध, 7. मान, 8. माया, 9. लोभ, 10. राग, 11. द्वेष, 12. कलह, 13. अभ्याख्यान, 14. पैशुन्य, 15. पर-परिवाद, 16. रति-अरति, 17. माया-मृषावाद, 18. मिथ्यादर्शनशल्य। ये अठारह मुख्य पाप हैं। इनके सेवन करने से आत्मा भारी होती है और अधोगति में जाती है। इन अठारह मुख्य पापों और अन्य सामान्य पापों का फल जीव को 82 पाप-प्रकृतियों के रूप में भोगना पड़ता है। पाप की 82 प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं - ____ पाप की 82 प्रकृतियाँ : 1. मतिज्ञानावरणीय, 2. श्रुतज्ञानावरणीय, 3. अवधिज्ञानावरणीय, 4. मनःपर्याय ज्ञानावरणीय, 5. केवलज्ञानावरणीय, 6. दानान्तराय, 7. लाभान्तराय, 8. भोगान्तराय, 9. उपभोगान्तराय, 10. वीर्यान्तराय, 11. निद्रा, 12. निद्रानिद्रा, 13. प्रचला, 14. प्रचला-प्रचला, 15. सत्यानगृद्धि, 16. चक्षुदर्शनावरण, 17. अचक्षुदर्शनावरण, 18. अवधि दर्शनावरण, 19. केवलदर्शनावरण, 20. असातावेदनीय, 21. नीचगोत्र, 22. मिथ्यात्व मोहनीय, 23. स्थावर, 24. सूक्ष्म, 25. अपर्याप्त, 26. साधारण, 27. अस्थिर, 28. अशुभ, 29. दुर्भग, 30. दुस्वर, 31. अनादेय, 32. अयशोकीर्ति, 33. नरकगति, 34. नरकायु, 35. नरकानुपूर्वी, 36. अनन्तानुबन्धीक्रोध, 37. अनन्तानुबंधी मान, 38. अनन्तानुबंधी माया, 39. अनन्तानुबंधी लोभ, 40. अप्रत्याख्यान क्रोध, 41. अप्रत्याख्यान मान, 42. अप्रत्याख्यान माया, 43. अप्रत्याख्यान लोभ, 44. प्रत्याख्यान क्रोध, 45. प्रत्याख्यान मान, 46. प्रत्याख्यान माया, 47. प्रत्याख्यान लोभ, 48. संज्वलन क्रोध, 49. संज्वलन मान, 50. संज्वलन माया, 51. संज्वलन लोभ, 52. हास्य, 53. रति, 54. अरति, 55. भय, 56. शोक, 57. जुगुप्सा, 58. स्त्रीवेद, 59. पुरुषवेद, 60. नपुंसकवेद, 61. तिर्यंचगति, 62. तिर्यंचानुपूर्वी, 63. एकेन्द्रिय जाति, 64. बेइन्द्रिय जाति, 65. त्रीन्द्रिय जाति, 66. चतुरिन्द्र जाति, 67. अशुभ विहायोगति, 68. उपघात, 69. अशुभवर्ण, 70. अशुभ गंध, 71. अशुभ रस, 72. अशुभ स्पर्श, 73. ऋषभनाराचसंहनन, 74. नाराचसंहनन, 75. अर्धनाराच संहनन, 76. कीलक संहनन, 77. सेवार्त संहनन, 78. न्यूग्रोध परिमण्डल
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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