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________________ तत्त्व मीमांसा * 367 का अनिवार्य माध्यम और अपने आप में स्थित है।' 'Thus it is proved that science and Jain Physics agree absolutely so for as they call Dharm (Ether) non material, nonatomic, non discreet, continuous, co-extensive with space, indivisible and as a necessary medium for motion and one which does not it self move." इस प्रकार विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है, कि जीव और पुद्गल (Matter) जो गतिशील है, उनकी गति में सहायक द्रव्य अवश्य है। जिस प्रकार सभी द्रव्यों को स्थान या आकाश देने वाला आकाश द्रव्य है, उसी प्रकार गति का माध्यम भी एक द्रव्य है। उसे जैन आगमों में धर्म-द्रव्य कहा है और वैज्ञानिक उसे इथर कहते हैं। इथर या धर्म द्रव्य के अभाव में कोई भी पदार्थ भले ही वह जड़ हो या चेतन, गति नहीं कर सकता। 4. अधर्मास्तिकाय : जीव और पुद्गलों की स्थिति में सहायक होने वाला तत्त्व अधर्मास्तिकाय कहा जाता है। जैसे वृक्ष की छाया पथिक के ठहरने में निमित्त कारण होती है, इसी तरह अधर्मास्तिकाय जीव व पुद्गलों की स्थिति में सहायक होता है। अधर्मास्तिकाय स्थिति में प्रेरक नहीं है, अपितु उपकारक-सहायमात्र है। स्थिति का नियामक तत्त्व होने से उसका अस्तित्व सिद्ध होता है। जो भी स्थिति रूप भाव है, वे सब अधर्मास्तिकाय के होने पर ही होते हैं। धर्म तथा अधर्म दोनों द्रव्य ही लोक और अलोक का विभाजन करते हैं। लोक में इन दोनों की उपस्थिति से ही पुद्गल व जीवों का गमन और स्थिति होते हैं। अलोक में इन दोनों की अनुपस्थिति के कारण ही अन्य कोई भी द्रव्य का गमनागमन या स्थिति संभव नहीं है। अधर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश हैं। यह सम्पूर्ण लोकाकाश व्यापी है। धर्मास्तिकाय की तरह यह एक अखण्ड अविभाज्य इकाई है। इसके भी तीन भेद हैं - स्कन्ध, देश और प्रदेश। द्रव्य, क्षेत्र. काल. भाव और गण की अपेक्षा इसके पाँच भेद हैं। अधर्मास्तिकाय द्रव्य से एक है, क्षेत्र से सम्पूर्ण लोक व्यापी है, काल से अनादि-अनन्त है, भाव से रूप, रस, गन्ध, स्पर्श से रहित है और गुण से जीव और पुद्गलों की स्थिति में सहायक है। अधर्म द्रव्य (Medium of rest for soul and matter ) : जैन विचारक प्रसंग के अनुसार यह प्रश्न करते हैं, कि अणु-परमाणु (Atoms) एक साथ मिलकर संसार में लोक (Universe) में ही महास्कन्ध का निर्माण क्यों करते हैं? वे महास्कन्ध से परे बिखरकर अनन्त आकाश (Infinite Space)अथवा अलोकआकाश में क्यों नहीं जाते? इससे यह स्पष्ट होता है, कि लोक आकाश (Finite Space) के आगे संसार (niverse) नहीं है। वास्तविक सत्य यह है, कि लोक का निर्माण स्थायी है।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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