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________________ 352 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन किसी के कार्य नहीं है और वे किसी अन्य कार्य को उत्पन्न नहीं करते, इसलिए वे किसी के कारण भी नहीं है। सिद्ध भावकर्म व द्रव्यकर्म दोनों कर्मों का क्षय होने पर स्वयं अपने को सिद्ध रूप से उत्पन्न करते हैं, अन्य कुछ भी उत्पन्न नहीं करते। अर्थात् सिद्ध कारण कार्य संबंध से परे है। संसारी जीव : जो जीव कर्म बन्धनों से बन्धे हुए नाना योनियों में शरीर धारण करके जन्म-मरण रूप से संसरण कर रहे हैं, वे संसारी जीव कहलाते हैं। पर्यायविशेष की भिन्नता को लेकर उसके कई अपेक्षाओं से विविध भेद किए जाते हैं। विविध पर्यायों की दृष्टि से जीव एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः प्रकार का भी है, चौदह प्रकार का भी है, और पाँच सौ त्रैसठ प्रकार का भी है। यहाँ पृथक्-पृथक् पर्यायों के आधार से ही जीवों के प्रकारान्तर का विवेचन किया जा रहा है। 1. गति : संसारी जीव जिन-जिन अवस्थाओं में निरन्तर गमन (भ्रमण) करता है, वे गति कहलाती है। गति चार है- नरक गति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति और देवगति। गति के आधार से जीव 4 प्रकार के होते हैं । पृथ्वी के नीचे सात नरक हैं, उनमें जो जीव निवास करते हैं, वे नारकी कहलाते हैं । स्वर्गों में जो जीव निवास करते हैं, वे देव कहलाते हैं। जो नरक और स्वर्ग के बीच मध्यलोक में निवास करते हैं तथा जिन्होंने मनुष्य योनि में जन्म पाया है, वे मनुष्य हैं। देव, नारकी तथा मनुष्य को छोड़ जितने संसारी जीव हैं, वे सब तिर्यंच कहलाते हैं। अपेक्षा विशेष से नारक के 14, तिर्यंच के 48, मनुष्य के 303 और देव के 118 भेद मिलकर जीव के 563 भेद होते हैं। 2. इन्द्रिय : जीवों को जो अर्थ ग्रहण (ज्ञान) में सहायक होती हैं, वे इन्द्रियाँ कही जाती हैं। जैन दर्शन में पाँच इन्द्रियाँ स्वीकार की गई हैं - 1. स्पर्शन, 2. रसना, 3. घ्राण, 4. चक्षु और 5 श्रोत्र । इन्द्रिय की अपेक्षा से जीव पाँच प्रकार के होते हैं - एकेन्द्रिय, द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। इन्द्रियों की गणना में इनका क्रम अपना विशेष महत्त्व रखता है। इन्द्रिय की अपेक्षा से जीवों का अन्य प्रकार से भी वर्गीकरण किया गया है। इस अपेक्षा से जीव दो प्रकार के होते हैं - त्रस और स्थावर। जिन्हें सिर्फ एक स्पर्शन इन्द्रिय ही प्राप्त है, वे स्थावर जीव होते हैं। जिनको दो, तीन, चार तथा पाँच इन्द्रियाँ प्राप्त हैं, वे त्रस जीव कहलाते हैं। जिन जीवों को सिर्फ एक स्पर्शन इन्द्रिय प्राप्त है, उनमें चैतन्य की मात्रा स्वल्पतम है। अतएव साधारण लोगों ने ही नहीं, अधिकांश तत्त्व चिन्तकों ने भी उनके जीवत्व को स्वीकार नहीं किया। जैन दर्शन के अनुसार तारतम्य होने पर भी एकेन्द्रिय स्थावर-जीवों में चेतना के सम्पूर्ण विकार उपलब्ध होते हैं। उनमें चैतन्य, सुखदुःखानुभूति, जन्ममरण, क्रोध, कषाय संज्ञा आदि विद्यमान है, जिनसे उनके जीवत्व
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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