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________________ 350 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन वह जीव भोक्ता होता है। सांख्य की तरह वह अकर्ता और अपरिणामी नहीं है और न प्रकृत्ति के द्वारा किए गए कर्मों का भोक्ता ही। यदि आत्मा कर्त्ता नहीं है, तो निष्क्रिय आत्मा कर्मफल भोगने की क्रिया कैसे कर सकता है। कर्ता कोई और हो तथा भोक्ता कोई और हो, तो यह सिद्धांत तर्क संगत भी प्रतीत नहीं होता। अतः जैन दर्शन ने आत्मा को कर्त्ता और भोक्ता दोनों ही माना है। आत्मा अदृष्टवान है : संसारी आत्माएँ अनादिकाल से कार्मण वर्गणाओं के सम्बद्ध है। आत्मा के द्वारा किए गए शुभाशुभ कर्म अदृष्ट का निर्माण करते हैं । उस अदृष्ट के कारण ही आत्मा को शुभाशुभ फल की प्राप्ति होती है। हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश आदि अच्छे-बुरे सब परिणाम अदृष्ट के अधीन होते हैं। जगत में पाया जाने वाला वैषम्य और वैचित्र्य अदृष्ट कर्म के निमित्त से ही है। प्रत्येक संसारवर्ती आत्मा अपने अदृष्ट से बंधा हुआ है, यद्यपि वह अदृष्ट भी उसी के द्वारा निर्मित किया गया है। जीव को शुभाशुभ फल देने वाली कोई ईश्वर जैसी सत्ता नहीं है, वरन् उसका स्वयं का निर्मित अदृष्ट है। इसीलिए संसारवर्ती आत्मा को पौद्गलिक अदृष्टवान कहा गया है। मनुष्य अपनी क्रियाओं से जितने गहरे या उथले संस्कार, प्रभाव और वातावरण अपनी आत्मा पर डालता है, उसी के तारतम्य से जीवों का इष्टानिष्ट चक्र चलता है। तत्काल किसी कार्य का ठीक कार्य-कारण भाव हमारी समझ में न भी आए, पर कोई भी कार्य अकारण नहीं हो सकता, यह एक अटल सिद्धान्त है। इसी तरह जीवन और मरण के क्रम में भी कुछ हमारे पुराने संस्कार और कुछ संस्कार प्रेरित प्रवृत्तियाँ तथा लोक का जीवन-व्यापार सब मिलकर कारण बनते हैं। इस प्रकार से स्पष्ट है, कि संसारी आत्माएँ कार्माण-पुद्गलों से कितना अधिक प्रभावित है, इसीलिए जीवों को पोद्गलिक अदृष्टवान कहा गया है। इस प्रकार जीव द्रव्य उपयोगमय, परिणामी नित्य, अमूर्त, कर्त्ता, भोक्ता, स्वदेह परिमाण, असंख्यात् प्रदेशी तथा पौद्गलिक अदृष्टवान आदि गुणों से युक्त है। जीवों के भेद : लोक में अनन्त जीव हैं। वे सब स्वभावतः समान शक्तियों के धारक हैं, किन्तु कर्मों एवं आवरणों ने उनमें अनेकरुपता उत्पन्न कर दी है। उसके आधार पर मुख्यतः जीव के दो भेद बताए गए हैं- मुक्त और संसारी जीव। जो जीव कर्म-बन्धनों से बंधे हुए नाना योनियों से शरीर धारण करके जन्ममरण रुप से संसरण कर रहे हैं, वे संसारी जीव कहलाते हैं। जो समस्त कर्म-संस्कारों से छूटकर अपने शुद्ध चैतन्य स्वरुप में अवस्थित हैं तथा स्वरुप रमण में लीन हैं, वे सिद्ध या मुक्त कहलाते हैं। मुक्त (सिद्ध) जीव : जब संसारी जीव समस्त कर्म-क्लेशों से और सांसारिक उपाधियों से छूट जाता है, तब वह अपने स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करता हुआ लोकाग्र
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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