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________________ ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा) 319 विशेषावश्यक भाष्य में सात, छः, पाँच, चार और दो भेदों का उल्लेख मिलता है और प्रत्येक नय के सौ-सौ भेद भी कहे हैं। रत्नाकर तथा नय प्रदीपादि ग्रन्थों में मिलता है। इनका विस्तृत विवेचन स्याद्वाद समासनय : संक्षेपरुपनय समासनय कहलाता है, यह दो प्रकार का है द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय । 1. द्रव्यार्थिक नय : वस्तु में स्वरुपतः अभेद है, वह अखण्ड है और अपने में एक और मौलिक है। यह अभेद ग्राहिणी दृष्टि द्रव्य दृष्टि कही जाती है । द्रव्य को मुख्य रूप से ग्रहण करने वाले नय द्रव्यार्थिक कहलाते हैं । जैसे- सोने के कंगन, हार आदि में उसके आकार की अपेक्षा उसके मूल द्रव्य सोने को ही देखें, तो यह द्रव्यार्थिक नय है। 2. पर्यायार्थिक नय : एक ही द्रव्य को व्यवहार में गुण, पर्याय और धर्मों के द्वारा अनेक रूप में ग्रहण किया जाता है। यह भेद ग्राहिणी दृष्टि पर्याय दृष्टि कही जाती है। पर्याय को मुख्य रूप से ग्रहण करने वाले नय को पर्यायार्थिक नय कहते हैं । जैसे- सोने के कंगन, द्वार आदि में सोने की अपेक्षा उसकी आकृति कंगन अथवा द्वार के रूप में उन्हें ग्रहण करना पर्यायार्थिक नय है। द्रव्यार्थिक नय तीन प्रकार के कहे गए हैं- नैगमनय, संग्रहनय और व्यवहार नय । पर्यायार्थिक नय चार प्रकार के कहे गए हैं ऋजुसूत्रनय, शब्दनय, समभिरुढ़नय एवं एवंभूतनय । जगत् में ठोस और मौलिक अस्तित्व यद्यपि द्रव्य का है और वही परमार्थ से अर्थ कहा जाता है, तदपि जगत् व्यवहार केवल परमार्थ अर्थ से नहीं चलता । अतएव व्यवहार के लिए पदार्थों का निक्षेप किया जाता है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव- -ये चार निक्षेप है । नाम शब्दात्मक अर्थ का अर्थ है । स्थापना ज्ञान के आकारों का आधार । द्रव्य और भाव अर्थ का आधार है। इस प्रकार जब प्रत्येक पदार्थ को अर्थ, शब्द और ज्ञान के आकारों में बाँटते हैं, तो इनके ग्राहक ज्ञान भी स्वभावतः तीन श्रेणियों में बंट जाते हैं-ज्ञान (संकल्प) नय, अर्थनय और शब्दनय। कुछ व्यवहार केवल संकल्प के बल से चलते हैं, वे ज्ञानाश्रयी होते हैं, उनमें अर्थ के तथाभूत होने की चिन्ता नहीं होती। जैसे आज महावीर जयन्ती है । अर्थ आधार से चलने वाले व्यवहार में एकान्त अभेदवादी वेदान्ती, एकान्त भेदवादी बौद्ध और भेदोभेद को स्वतंत्र मानने वाले नैयायिक वैशेषिकादि हैं। शब्द भेद से अर्थ भेद मानने वाले नय शब्दनय है। इन सभी प्रकार के व्यवहारों के समन्वय के लिए जैन परम्परा ने नय पद्धति स्वीकार की है । नय का अर्थ है- अभिप्राय, दृष्टि, विवक्षा या अपेक्षा । -
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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