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________________ 316* जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन जाता है, कि सारी निर्ग्रन्थ परम्परा अपने वर्तमान श्रुत का मूल पूर्व में मानती आयी है। 3. पूर्वश्रुत में जिस-जिस देश काल का एवं जिन-जिन व्यक्तियों के जीवन का प्रतिबिम्ब था, उससे आचारांग आदि पर प्रतिबिम्ब पडा, यह स्वाभाविक है। फिर भी आचार, तत्त्वज्ञान एवं प्रमाणशास्त्र के मुख्य प्रश्नों के स्वरूप में दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ा। इस प्रकार जैन दर्शन के अन्तर्गत प्रमाण सम्बन्धी चिन्तन का विवेचन करने के पश्चात् यह तो भलीभाँति ज्ञात हो जाता है, कि वह कितना प्रमाणिक एवं तर्क संगत है। जैन दर्शन में तत्त्व या वस्तु को जानने के लिए शास्त्रकारों ने दो साधन बताए हैं - प्रमाण और नय। प्रमाणों का सम्पूर्ण विवेचन करने के पश्चात् हम नयवाद का विवेचन करेंगे। नयवाद : नय पद्धति जैन दर्शन की पूर्णतया मौलिक विचार शैली है। अन्य दर्शनों में कहीं नय विषयक चिन्तन दृष्टिगोचर नहीं होता है। अन्य समस्त दर्शन अपनी-अपनी एकदेशीय विचारधारा को ही परिपूर्ण मानकर उसका समर्थन करते हैं, जबकि जैन दर्शन वस्तु के अनन्त धर्मात्मक स्वरूप को दृष्टिगत रखकर उसके विविध रूपों को विभिन्न दृष्टिकोणों से प्रस्तुत करता है। जैन दृष्टि परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले विचारों में अविरोध का बीज खोजकर उनमें समन्वय स्थापित करती है। जैन दर्शन की अनेकान्त दृष्टि, विभिन्न वादियों की परम्परा विरुद्ध मान्यताओं को अलग-अलग नय की एकांगी दृष्टि के रूप में स्वीकृति देकर आंशिक सत्य के रूप में उन्हें मान्यता प्रदान करती है। दार्शनिक जगत के विवादों को सुलझाने की विलक्षण एवं अद्भुत शक्ति जैन दर्शन की अनेकान्त दृष्टि और नय-पद्धति में समाहित है। खण्ड-खण्ड में विभक्त सत्य को जैन दर्शन की अनेकान्त दृष्टि एक अखण्ड सत्य का, परिपूर्ण सत्य का स्वरूप प्रदान करती है। "अनेकान्तात्मकं वस्तु, गोचर: सर्वसंविदाम्। एकदेश विशिष्टोऽर्थो, नयस्य विषयो मतः॥12 अर्थात् प्रमाण द्वारा अनन्त धर्मात्मक वस्तु के सर्व संवेदी ज्ञान को ग्रहण किया जाता है। उन अनन्त धर्मों में से किसी एक विशिष्ट धर्म को जानने वाला ज्ञान नय कहलाता है। नय जब वस्तु के एक धर्म को जानता है, तब शेष रहे हुए धर्म भी वस्तु में विद्यमान तो रहते ही हैं, किंतु उन्हें गौण कर दिया जाता है। इस प्रकार सिर्फ एक धर्म को मुख्य करके उसे जानने वाला ज्ञान नय है। प्रमाण वस्तु के पूर्व रूप को ग्रहण करता है और नय प्रमाण द्वारा गृहीत वस्तु के एक अंश को जानता है। प्रमाण ज्ञान वस्तु को समग्र भाव से ग्रहण करता है, उसमें अंश विभाजन करने की ओर लक्ष्य नहीं होता। जैसे - 'यह घड़ा है।' इस ज्ञान में
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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