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________________ ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा)* 315 पार्श्वकालीन श्रत : जैन आगमों में जहाँ कहीं भी अनगार धर्म स्वीकार करने की बात है,वहाँ या तो यह कहा गया है, कि वह सामायिक आदि 11 अंग पढ़ता है या चतुर्दश पूर्व पढ़ता है। __शास्त्रों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है, कि आचारांग आदि 11 अंगों की रचना महावीर के अनुगामी गणधरों ने की। भगवतीसूत्र में अनेक जगह महावीर के मुख से कहलाया गया है, कि अमुक वस्तु पुरुषादायनीय पार्श्वनाथ ने कही है, जिसको मैं भी कहता हूँ और जब हम यह भी देखते हैं, कि महावीर का तत्त्वज्ञान वही है, जो पार्श्वपत्यिक परम्परा से चला आता है, तब हमें 'पूर्व' शब्द का अर्थ समझने में कोई कठिनाई नहीं आती। 'पूर्व' श्रुत का अर्थ स्पष्टतया यही है, कि जो श्रुत महावीर के पूर्व से पार्श्वपत्यिक परम्परा द्वारा चला आ रहा था और जो किसी न किसी रूप में महावीर को भी प्राप्त हुआ। डॉ. याकोबी का भी ऐसा ही मत है। __ जैन श्रुत के मुख्य विषय नवतत्त्व, पंचास्तिकाय, आत्मा और कर्म का संबंध, उसके कारण, उसकी निवृत्ति के उपाय, कर्म का स्वरूप आदि है। इन्हीं विषयों का महावीर और उनके शिष्यों ने संक्षेप से विस्तार और विस्तार से संक्षेप कर भले ही कहा हो, पर वे सब विषय पार्श्वपत्यिक परम्परा के पूर्वश्रुत में किसी न किसी रूप से निरुपित थे, इस विषय में कोई संदेह नहीं। एक भी स्थान पर महावीर अथवा उनके शिष्यों में से किसी ने भी ऐसा नहीं कहा, कि महावीर का श्रुत अपूर्व अर्थात् सर्वथा नवीन है। चौदहपूर्व के विषयों की एवं उनके भेद-प्रभेदों की, जो टूटी-फूटी जानकारी नंदीसूत्र तथा धवला' में मिलती है। उसका आचारांग आदि 11 अंगों में तथा अन्य उपांग आदि शास्त्रों में प्रतिपादित विषयों के साथ मिलान करने पर इसमें संदेह नहीं रहता, कि जैन परम्परा के आचार-विचार विषयक मुख्य प्रश्नों की चर्चा पार्श्वपत्यिक परम्परा के पूर्वश्रुत और महावीर की परम्परा के द्वादशांग श्रुत में समान ही है। कल्पसूत्र में वर्णन है, कि महावीर के संघ में 300 श्रमण 14 पूर्व के धारक थे। अब तक के इस विश्रूषण के अनुसार निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं : 1. पार्श्वकालीन परम्परा का पूर्व श्रुत महावीर को किसी न किसी रूप में अवश्य प्राप्त हुआ तथा उसी में प्रतिपादित विषयों पर आचारांग आदि ग्रन्थों की पृथक-पृथक् मनीषीयों द्वारा रचना की गई। 2. महावीर शासित संघ में पूर्वश्रुत और आचारांग आदि श्रुत दोनों की बहुत प्रतिष्ठा रही है। इन्हें अधिक प्रमाणित एवं श्रेष्ठ माना जाता रहा है। इसी कारण दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं के साहित्य में आचार्यों का ऐसा प्रयत्न रहा है, कि वे अपने-अपने कर्म विषयक तथा ज्ञान आदि विषयक इतर पुरातन ग्रन्थों का सम्बन्ध उस विषय के पूर्व नामक ग्रन्थ से जोड़ते हैं। दोनों परम्पराओं के वर्णन से इतना निश्चित रूप से ज्ञात हो
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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