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________________ 284* जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन वाले अल्पग्राही अवग्रह, अल्पग्राहिणी ईहा, अल्पग्राही अवाय और अल्पग्राहिणी धारणा कहलाते हैं। 3-4. बहुविध.व एकविध : बहुविध अर्थात् अनेक प्रकार से और एकविध अर्थात् एक प्रकार से। जैसे आकार-प्रकार, रूप-रंग या मोटाई आदि में विविधता रखने वाली पुस्तकों को जानने वाले उक्त चारों ज्ञान क्रम से बहुविध ग्राही अवग्रह, बहुविध ग्राहिणी ईहा, बहुविध ग्राही अवाय, बहुविध ग्राहिणी धारणा कहलाते हैं। आकार-प्रकार, रूप रंग तथा मोटाई आदि में एक ही प्रकार की पुस्तकों को जानने वाले वे ज्ञान एकविध ग्राही अवग्रह, एक विधग्राहिणी ईहा, एकविध ग्राही अवाय तथा एकविध ग्राहिणी धारणा आदि कहलाते हैं। बहु तथा अल्प का अभिप्राय प्रमेय की संख्या से है और बहुविध तथा एकविध का अभिप्राय प्रकार, किस्म या जाति की संख्या से है। 5-6. क्षिप्रग्राही व अक्षिप्रग्राही : शीघ्र जानने वाले चारों मतिज्ञान क्षिप्रग्राही अवग्रह आदि और विलंब से जानने वाले अक्षिप्रग्राही अवग्रह आदि कहलाते हैं। देखा जाता है, कि इन्द्रिय विषय आदि सब बाह्य सामग्री तुल्य होने पर भी मात्र क्षयोपशम की पटुता के कारण एक मनुष्य उस विषय का ज्ञान जल्दी प्राप्त कर लेता है और क्षयोपशम की मन्दता के कारण दुसरा मनुष्य देर से प्राप्त कर पाता है। 7-8. अनिश्रित ग्राही व निश्रित ग्राही : अनिश्रित अर्थात् लिंग अप्रमित (हेतु द्वारा असिद्ध) और निश्रित का अर्थ है, लिंग प्रमित वस्तु। जैसेपूर्व में शीत की अनुभूति, कोमल और स्निग्ध स्पर्श रूप लिंग से वर्तमान में जूही के फूलों को जानने वाले उक्त चारों ज्ञान क्रम से निश्रितग्राही (सलिंग ग्राही) अवग्रह आदि और उक्त लिंग के बिना ही उन फूलों को जानने वाले अनिश्रितग्राही (अलिंग ग्राही) अवग्रह आदि कहलाते हैं। अनिश्रित और निश्रित शब्द का यही अर्थ नन्दीसूत्र की टीका में भी है, लेकिन इसके अतिरिक्त दूसरा अर्थ भी उस टीका में श्री मलयगिरी ने बतलाया है, जैसे परधर्मों से मिश्रित ग्रहण निश्रितावग्रह और परधर्मों से अनिश्रित ग्रहण अनिश्रितावग्रह है।" दिगम्बर ग्रन्थों में ‘अनिःसृत' पाठ है, तद्नुसार उनमें अर्थ किया गया है, कि सम्पूर्णतया आविर्भूत पुद्गलों का ग्रहण 'निःसृतावग्रह' और सम्पूर्णतया नहीं आविर्भूत पुद्गलों का ग्रहण अनिःसृतावग्रह है। 9-10. असंदिग्धग्राही व संदिग्धग्राही : असंदिग्ध अर्थात् निश्चित व संदिग्ध
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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