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________________ 256 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन शून्यावादी बौद्ध घटपटादि बाह्य पदार्थों को और ज्ञान को भी स्वीकार नहीं करता। वह कहता है, कि संसार में न तो कोई बाह्य पदार्थ है और न बाह्य पदार्थों को जानने वाला ज्ञान ही है। न कोई प्रमाता है, न कोई प्रमेय। न प्रमाण है और न प्रमिति है। प्रमाता-प्रमेय-प्रमाण और प्रमिति से सर्वथा रहित केवल शून्यता ही सब कुछ है और कुछ नहीं है। जो प्रमाता-प्रमेय-प्रमाण-प्रमिति आदि कहे जाते हैं, वास्तव में वे सब मिथ्या हैं, काल्पनिक हैं। शून्यता ही वास्तविक है, यह शून्यवादी बौद्ध का मन्तव्य है। विज्ञानवादी बौद्ध कहता है, कि घटपटादि बाह्य पदार्थ वास्तविक नहीं है। ये सब ज्ञान की ही विविध पर्याय हैं, अतएव ज्ञान ही तत्व है, बाह्य घट-पटादि पदार्थ जो प्रतीत होते हैं, वे मिथ्या हैं। वेदान्त दर्शन भी बाह्य-पदार्थ को मिथ्या कहता है। उसके अनुसार ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या"' केवल परब्रह्म ही वास्तविक है और शेष सारा जगत् मिथ्या है। उपर्युक्त धारणाओं को खण्डित करने के लिए जैन दर्शन ने प्रमाण के लक्षण में 'स्व-पर' शब्द का उल्लेख किया है। इसके द्वारा यह प्रतिपादित किया है, कि विश्व में ज्ञान भी है, ज्ञेय भी है। प्रमाण-प्रमेय-प्रमाता-प्रमिति आदि वास्तविक तत्व हैं। ये काल्पनिक नहीं हैं, अपितु सत्य हैं। ज्ञान भी सत् है, ज्ञेय भी सत्, ज्ञाता भी सत् है, ज्ञान का फल भी सत् है। प्रमाण-प्रमेय-प्रमाता-प्रमिति रूप तत्त्व चतुष्टयी पारमार्थिक है, काल्पनिक नहीं है। इस जैन सिद्धान्त को प्रतिपादित करने हेतु प्रमाण के लक्षण 'स्व-पर' शब्द का उल्लेख किया गया है। इसका अर्थ है, कि प्रमाण अपने को भी जानता है और पर पदार्थ को भी जानता है। जैन दर्शन सम्मत प्रमाण के लक्षणों में प्रमाण के विभिन्न स्वरूप को लक्ष्यगत रखकर विभिन्न दृष्टिकोण व्यक्त किए गए हैं। वे सभी अपने-अपने स्थान पर सही है, तथापि प्रमाण का सर्वमान्य एवं पर्याप्त लक्षण है, निश्चयात्मक ज्ञान अथवा सम्यक् निर्णय। __ आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाण को अधिक परिष्कृत रुप में परिभाषित किया है "सम्यगर्थ निर्णयः प्रमाणम्।120 अर्थात् अर्थ का सम्यक निर्णय प्रमाण है। पदार्थ जैसा है, उसे उसी रुप में जानना। संशय, विपयर्य एवं अनध्यवसाय रहित निश्चयात्मक एवं व्यवसायात्मक ज्ञान ही सम्यक ज्ञान है, जो प्रमाणरुप है। प्रमाण के द्वारा जो साधा जाय निष्पन्न किया जाय वह प्रमाण का फल है।" सभी प्रमाणों का साक्षात् फल होता है, अज्ञान की निवृत्ति । प्रत्यक्ष, परोक्ष आदि सभी ज्ञानों का साक्षात् फल अज्ञान का हट जाना ही है। अज्ञान निवृत्ति रुप साक्षात् फल के फल को परम्परा फल कहते हैं, क्योंकि यह अज्ञान निवृत्ति से उत्पन्न होता है। परम्परा फल सब ज्ञानों का समान नहीं है। केवलज्ञान का परम्परा फल उदासीनता है। इसके अतिरिक्त शेष प्रमाणों का परम्परा फल समान है। ग्राह्य पदार्थों को ग्रहण करने का भाव, त्याज्य पदार्थों को त्यागने का
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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